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Friday 11 November 2016

कामवासना के पार :MY WAY

||कामवासना और साक्षी ||


कामवासना के पार जाने के लिए अविवाहित रहने की सहज इच्छा रखने वाला साधक साक्षी— भाव को साधे या वासना में उतरकर उसकी व्यर्थता या सार्थकता को जान ले? अविवाहित रहने की सहज इच्छा क्या इस तथ्य को इंगित नहीं करती कि इसकी व्यर्थता को उसने अपने पिछले जन्मों की यात्रा में बहुत दूर तक जान लिया है? क्या साक्षी— भाव बिना उसकी पूर्ण व्यर्थता जाने नहीं साधा जा सकता?

पहली बात, अविवाहित होने की सहज इच्छा और अकाम, एक ही बात नहीं हैं। अगर वासना ही न उठती हो, तब तो कोई सवाल नहीं है। तब तो यह सवाल भी नहीं उठेगा। वासना ही न उठती हो, तो यह सवाल ही कहां उठता है!
अविवाहित रहने की इच्छा और वासना का न उठना अलग बातें हैं। अविवाहित तो बहुत— से लोग रहना चाहते हैं। वस्तुत: तो जो ठीक वासना से भरे हैं, वे विवाह से बचना चाहेंगे, क्योंकि विवाह उपद्रव है वासना से भरे आदमी के लिए। विवाह का मतलब है, एक स्त्री, एक पुरुष से बंध गए। और वासना बंधना नहीं चाहती; वासना उन्मूक्त रहना चाहती है।
तो विवाह न करने की इच्छा जरूरी नहीं है कि ब्रह्मचर्य की इच्छा हो। विवाह न करने की इच्छा बहुत गहरे में अब्रह्मचर्य की इच्छा भी हो सकती है।
फिर विवाह न करने की इच्छा के पीछे हजार कारण होते '। विवाह एक जिम्मेवारी है, एक उत्तरदायित्व है। सभी लोग उठाना भी नहीं चाहते। बहुत चालाक हैं, वे बिलकुल नहीं उठाना चाहेंगे। कौन उस झंझट में पड़े!
लेकिन वासना का न होना दूसरी बात है। विवाह का वासना से कोई लेना—देना नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है, किन्हीं और कारणों से।
एक नौकरानी रखना भी महंगा है घर में। एक पत्नी से ज्यादा सस्ता कोई भी उपाय नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है। और वासना से भरा हुआ आदमी विवाह से बच सकता है। इसलिए विवाह और वासना को पर्यायवाची न समझें।
चारों तरफ विवाह का दुख दिखाई पड़ता है। जिसमें थोड़ी भी बुद्धि है, वह विवाह से बचना चाहेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही है कि क्या नसरुद्दीन, कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी खयाल उठता है कि मुझसे तुमने विवाह न किया होता तो अच्छा होता? या ऐसा खयाल उठता है कभी कि मैंने—नसरुद्दीन की पत्नी ने—किसी और से विवाह कर लिया होता, तो अच्छा था न:
नसरुद्दीन ने कहा कि मैं किसी दूसरे का बुरा क्यों चाहने लगा! एक भावना जरूर मन में उठती है कि तू अगर सदा कुंआरी तो अच्छा था।
तो चारों तरफ विवाह आप देख रहे हैं। वहां जो दुख फैला हुआ है। हर बच्चे को उसके घर में दिखाई पड़ रहा है, उसके मां —बाप का दुख, बड़े भाइयों, उनकी पत्नियों का दुख। विवाह एक नरक है, चारों तरफ फैला हुआ है। बडी गहरी वासना है, इसलिए हम फिर भी विवाह में उतरते हैं। नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। अंधे हैं बिलकुल, शायद इसलिए। बिलकुल समझ से नहीं चलते। या हर आदमी को एक खयाल है भीतर कि मैं अपवाद हूं। इसलिए ये सब लोग दुख भोग रहे हैं, मैं थोडे ही भोगूंगा। हर आदमी को यह खयाल है।
अरब में कहावत है कि परमात्मा हर आदमी को बनाकर उसके कान में एक बात कह देता है कि तुझे मैंने अपवाद बनाया है। तेरे जैसा मैंने कोई बनाया ही नहीं। तू नियम नहीं है, तू एक्सेप्शन है। और हर आदमी इसी वहम में जीता है।
आप अपने जैसे पचास आदमियों को मरते देखें उसी गट्टे में। आप अकड़ से चलते जाएंगे कि मैं थोड़े ही! मैं बात ही अलग हूं। इस अपवाद के कारण आप विवाह में उतरते हैं। नहीं तो आंख खोलने वाली है, विवाह की घटना चारों तरफ घटी हुई है। उसमें कहीं कोई छिपा हुआ नहीं है मामला।
तो जरा भी समझ होगी, तो आपमें विवाह की सहज इच्छा न।? पैदा होगी। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि आपमें ब्रह्मचर्य की इच्छा पैदा हो रही है। ब्रह्मचर्य बड़ी दूसरी बात है। अकाम बड़ी दूसरी बात है।
यह जो अकाम है, अगर वह सहज है, तो यह प्रश्न ही नहीं उठेगा। फिर कहीं जाने का कोई सवाल नहीं है, किसी अनुभव में उतरने की जरूरत नहीं है। जिस बात की मन में वासना नहीं उठ। रही, उसके अनुभव में उतरने का प्रयोजन क्या है? और अनुभव में उतरूं या न उतरूं, यह भी खयाल क्यों उठेगा?
साफ है कि वासना भीतर मौजूद है। विवाह की जिम्मेवारी लेने का मन नहीं है। मन चालाक है और वह होशियारी की बातें कर रहा है।
तो मैं कहूंगा कि अगर मन में वासना हो, तो वासना में उतरना . ही उचित है। उतरने का मतलब यह नहीं है कि आप साक्षी— भाव खो दें। उतरें और साक्षी— भाव कायम रखें। उतरेंगे, तभी साक्षी— भाव को कसौटी भी है। और अगर नहीं उतरे, तो। साक्षी— भाव तो साधना मुश्किल है। और वासना सघन होती जाएगी, और मन में चक्कर कांटेगी, और मन को अनेक तरह की विकृतियों में, परवरशंस में ले जाएगी।
जिनको हम साधु —संत कहते हैं, आमतौर से विकृत मनों की अवस्था में पहुंच जाते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन मरा। उसके बहुत शिष्य भी थे। इस दुनिया में शिष्य खोजना जरा भी कठिन मामला नहीं है। अनेक लोग उसे मानते भी थे। कुछ दिनों बाद उसका एक शिष्य भी मरा। तो जाकर उसने पहला काम स्वर्ग में तलाश का किया कि नसरुद्दीन कहां है। पूछा—तांछा तो किसी ने खबर दी कि नसरुद्दीन वह सामने जो एक सफेद बदली है, उस पर मिलेगा।
भागा हुआ शिष्य अपने गुरु के पास पहुंचा। वहा जाकर उसने देखा, तो बहुत चकित रह गया। का नसरुद्दीन एक अति सुंदर स्त्री को अपनी गोद में बिठाए हुए है। उसने मन में सोचा कि मेरा गुरु! और यह तो सदा विपरीत बोलता था स्त्रियों के; और ब्रह्मचर्य के बड़े पक्ष में समझाता था। यह क्या हो गया! लेकिन तब उसे तत्‍क्षण खयाल आया उसके अचेतन से कि नहीं—नहीं, यह परमात्मा का दिया गया पुरस्कार होगा, यह जो स्त्री है। मेरे गुरु ने इतनी साधना की और इतनी तपश्चर्या करता था और इतना ज्ञानी था कि जरूर उसको पुरस्कार में यह सुंदरतम स्त्री मिली है।
तो वह भागा हुआ गया। उसने कहा, धन्यभाग, और परमात्मा का अनुग्रह, प्रभु की कृपा; कैसा पुरस्कार तुम्हें मिला! नसरुद्दीन ने कहा, पुरस्कार? यह मेरा पुरस्कार नहीं है, इस स्त्री को मैं दंड की तरह मिला हूं। शी इज नाट माई प्राइज; आई एम हर पनिशमेंट। लेकिन उस शिष्य के मन में, अचेतन में, यह खयाल आ जाना कि यह पुरस्कार मिला होगा, इस बात की खबर है कि वासना कायम है और इसको पुरस्कार मानती है।
इसलिए ऋषि—मुनि भी स्वर्ग में किस पुरस्कार की आशा कर रहे हैं? अप्सराएं, शराब के चश्मे, कल्पवृक्ष, उनके नीचे ऋषि—मुनि बैठे हैं और भोग रहे हैं!
तो जो आप छोड़ रहे हैं, वह छोड़ नहीं रहे हैं। वह कुछ सौदा है गहरा और उसमें पुरस्कार की आशा कायम है। यह इस बात की सूचना है कि ये मन विकृत हैं। ये स्वस्थ मन नहीं हैं।
जिन—जिन के स्वर्ग में अप्सराओं की व्यवस्था है, उन—उन का ब्रह्मचर्य परवटेंड है, विकृत है। और जिन्होंने स्वर्ग में शराब के चश्मे बहाए हैं, उनके शराब का त्याग बेईमानी है, झूठा है। जो वे यहां नहीं पा सकते या यहां जिसको छोड़ने को कहते हैं, वहां उसको पाने का इंतजाम कर लेते हैं। यह मन की दौड़ साफ है। यह गणित सीधा है।
तो मैं तो कहूंगा कि बजाय वासना को दबाने, विकृत करने के साक्षी— भाव से उसमें उतर जाना उचित है। संसार एक अवसर है। यहां जो भी है, अगर उसका जरा भी मन में रस है, तो उसमें उतर जाएं, भागें मत। नहीं तो वह स्वर्ग तक आपका पीछा करेगा। आखिरी क्षण तक आपका पीछा करेगा। उसमें उतर ही जाएं। उसका अनुभव ले ही लें।
अनुभव मुक्तिदायी है, अगर होश कायम रखें। नहीं तो अनुभव पुनरुक्ति बन जाता है और नए चक्कर में ले जाता है।
इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मात्र अनुभव से आप मुक्त हो जाएंगे। अनुभव और साक्षी का भाव संयुक्त हो, तो आप मुक। हो जाएंगे। अकेला अनुभव हो, तो आपकी आदत और गहरी होती जाएगी। और फिर आदत के वश आप दौड़ते रहेंगे। और अकेला साक्षी— भाव हो और अनुभव से बचने का डर हो, तो वह साक्षी— भाव कमजोर और झूठा है। क्योंकि साक्षी— भाव को कोई भय नहीं है। न किसी चीज के करने का भय है, और न न करने का भय है।
साक्षी— भाव को कर्म का प्रयोजन ही नहीं है। जो भी हो रहा है, उसे देखता रहेगा। तो साक्षी मंदिर में बैठा हो कि वेश्यालय में, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि साक्षी का काम सिर्फ देखने का है।
कथा है बौद्ध साहित्य में, आनंद एक गांव से गुजर रहा है—बुद्ध का शिष्य। और कथा है कि एक वेश्या ने आनंद को देखा। आनंद सुंदर था। संन्यस्त व्यक्ति अक्सर सुंदर हो जाते हैं। और संन्यस्त व्यक्तियों में अक्सर एक आकर्षण आ जाता है, जो गृहस्थ में नहीं होता। एक व्यक्तित्व में आभा आ जाती है।
वह वेश्या मोहित हो गई। और कथा यह है कि उसने कुछ तंत्र—मंत्र किया। बुद्ध देख रहे हैं दूर अपने वन में वृक्ष के नीचे बैठे। दूर घटना घट रही है, आनंद बहुत दूर है, लेकिन कथा यह है कि बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध देख सकते हैं। वे देख रहे हैं। बुद्ध के पास सारिपुत्त, उनका शिष्य भी बैठा हुआ है। वह भी देख रहा है।
सारिपुत्त बुद्ध से कहता है, आप आनंद को बचाएं। वह किसी मुश्किल में न पड़ जाए। क्योंकि स्त्री बड़ी रूपवान है और उसने बडा गहरा तंत्र—मंत्र फेंका है। और आनंद कहीं ठगा न जाए। लेकिन बुद्ध देखते रहते हैं।
अचानक बुद्ध उठकर खड़े हो जाते हैं और सारिपुत्त से कहते हैं, अब कुछ करना होगा। सारिपुत्त कहता है, अब क्या हो गया जो आप करने के लिए कहते हैं? अब तक मैं आपसे कह रहा था, कुछ करें। आप चुप बैठे रहे। जो बीमारी शुरू हुई, उसे पहले ही रोक देना उचित है!
बुद्ध ने कहा, बीमारी अब तक शुरू नहीं हुई थी; अब शुरू हुई है। आनंद मूर्च्छित हो गया, साक्षी— भाव खो गया। अभी तक कोई डर नहीं था। वेश्या हो, सुंदर हो, कुछ भी हो, अभी तक कोई भय न था। और आनंद उसके घर में चला जाए; रात वहा टिके, कोई भय की बात नहीं थी। अब भय खड़ा हो गया है।
लेकिन सारिपुत्त बडा चकित है, क्योंकि आनंद अब भाग रहा है। वेश्या बहुत दूर रह गई है। जब बुद्ध कहते हैं, भय हो गया है, तब आनंद वेश्या से दूर निकल गया है भागकर और उसने पीठ कर ली है। वह लौटकर भी नहीं देख रहा है। लेकिन बुद्ध खड़े हैं। और वे कहते हैं, इस समय आनंद को सहायता की जरूरत है।
सारिपुत्त कहता है, आप भी अनूठी बातें करते हैं! जब वेश्या सामने खड़ी थी और आनंद उसको देख रहा— था और डर था कि वह लोभित हो जाए, मोहित हो जाए, तब आप चुपचाप बैठे रहे। और अब जब कि आनंद भाग रहा है, और वेश्या दूर रह गई है, और उसके मंत्र—तंत्र पीछे पडे रह गए हैं, और उसके प्रभाव का क्षेत्र पार कर गया है आनंद, और आनंद लौटकर भी नहीं देख रहा है, तो अब आपके खड़े होने की क्या जरूरत है?
बुद्ध ने कहा, वह भाग ही इसलिए रहा है कि साक्षी— भाव खो गया। अब वह कर्ता— भाव में आ गया है। और कर्ता की वजह से डरा हुआ है। और अब वह डर रहा है। जब तक साक्षी था, तब तक खड़ा था, डर के कोई कारण भी न थे। अब उसको सहायता की जरूरत है।
एक ही बात करने जैसी है कि आपके भीतर साक्षी— भाव बना रहे। फिर आप कुछ भी करें, विवाह करें, न करें, कुछ भी करें, साक्षी— भाव आपके अनुभव में जुड़ा रहे, तो आप आज नहीं कल अपनी मुक्ति की सीढ़ियां पूरी कर लेंगे।
लेकिन ध्यान रहे, अधूरे और कच्चे अनुभवों को रोकने का परिणाम विषाक्त होता है। भागें मत, डरें मत, साक्षी को ही सम्हाले। मेरा सारा जोर इस बात पर है कि आप जागे, बजाय भागने के। भागकर कहं। जाएंगे? विवाह न करें, यह हो सकता है। लेकिन कितने लोग विवाह न करने से कुछ कहीं पहुंच नहीं जाते। विवाह न करने का परिणाम चित्त में और वासनाओं का जाल होता है।
अगर एक विवाहित और एक अविवाहित आदमी की जांच की जाए बैठकर, तो अविवाहित आदमी के मन में ज्यादा वासना मिलेगी। स्वाभाविक है। जैसे एक भूखे आदमी की और भोजन किए आदमी की जांच की जाए, तो भूखे आदमी के मन में भोजन का ज्यादा खयाल मिलेगा। जिसका पेट भरा है, उसके मन में भोजन का खयाल क्यों होगा!
तो जब तक आपको भीतर का साक्षी ही न जगने लगे, तब तक जीवन के किसी अनुभव से अकारण अधूरे में, अधकचरे में भागना उचित नहीं है। उस भय से कोई किसी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है। सारा जीवन अनुभव के लिए है। यह ऐसा ही है, जैसे हम किसी विद्यार्थी को विश्वविद्यालय भेज दें और वह वहा परीक्षाओं से बचने लगे। यह संसार परीक्षालय है। वहां आपकी चेतना इसीलिए
है, ताकि अनुभवों से गुजरकर परिपक्व हो जाए।
तो मैं तो कहूंगा, सब अनुभव भोग लें, बुरे को भी। अगर जरा भी रस हो बुरे में, तो उसको भी भोग लें। बस इतना ही खयाल रखें कि भोगते समय में भी होश बना रहे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। और अगर आप डरे, जिम्मेवारी से बचना चाहा, तो वासनाएं विकृत हो जाएंगी और भीतर मन में घूमती रहेंगी।
उन विकृत वासनाओं के परिणाम कभी भी मुक्तिदायी नहीं हैं। स्वास्थ्य से तो कोई मुक्त हो सकता है, विकृति से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
तो सहज हों, स्वाभाविक हों। और जो भी मन में उठता हो, उसको उठने दें, उसको पूरा भी होने दें। सिर्फ एक ही बात खयाल रखें कि पीछे एक देखने वाला भी खडा रहे और देखता रहे। आपकी पूरी जिंदगी एक नाटक हो जाए और आप उसको देखते रहें। यह देखना ही सारी जिंदगी को बदल देगा। यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, देखने के द्वारा पूरी जिंदगी को बदल लेना।
भागने के द्वारा कोई कभी नहीं बदलता। भागने से सिर्फ कमजोरी जाहिर होती है। और भागे हुए आदमी की वासनाएं पीछा करती हैं। वह जहां भी चला जाए, वासनाएं उसके पीछे होंगी।

ओशो
गीता दर्शन, भाग -7

Thursday 25 August 2016

Great Thoughts On Death: By Osho

मृत्यु के समय जागे रहने की तैयारी



भगवान श्री मृत्यु में भी जागे रहने के लिए या ध्यान में सचेतन मृत्यु की घटना को सफलतापूर्वक आयोजित करने के लिए शरीर— प्रणाली श्वास— प्रणाली श्वास की स्थिति प्राणों की स्थिति ब्रह्मचर्य मनशक्ति आदि के संबंध में क्या— क्या तैयारियां साधक की होनी चाहिए

 इस पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें। ?

 मृत्यु में जागे हुए रहने के लिए सबसे पहली तैयारी दुख में जागे रहने की करनी पडती है। साधारणत: जो दुख में ही मूर्च्छित हो जाता है, उसकी मृत्यु में जागे रहने की संभावना नहीं है। और दुख में मूर्च्‍छित होने का क्या अर्थ है, यह समझ लेना जरूरी है। तो दुख में जागे रहने का अर्थ भी समझ में आ जाएगा।

जब भी हम दुख में होते हैं तो मूर्च्छित होने का अर्थ होता है, दुख के साथ आइडेंटिफिकेशन, दुख के साथ तादात्म्य। जब आपका सिर दुखता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर कहीं दुख रहा है और आप जान रहे हैं। ऐसा लगता है कि मैं ही दुख रहा हूं।

जब आप को बुखार होता है और शरीर उत्तप्त होता है, तब ऐसा नहीं लगता है कि कहीं दूर शरीर गर्म हो गया है। ऐसा लगने लगता है कि मैं ही गर्म हो गया हूं। यह है आइडेंटिफिकेशन, यह है तादात्म्य। जब पैर में चोट लगती है और घाव हो जाता है, तो पैर में चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा नहीं मालूम पड़ता है। मुझे चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा मालूम पड़ता है।

असल में शरीर के साथ हमारा कोई फासला नहीं, कोई डिस्टेंस नहीं। शरीर के साथ हम एक ही होकर जीते हैं। जब भूख लगती है, तो हम ऐसा नहीं कहते कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। हम ऐसा ही कहते हैं कि मुझे भूख लगी है। सचाई यह नहीं है। सचाई यह है कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। मैं तो बोध का बिंदु हूं। मुझे तो निरंतर पता चल रहा है। पैर में कांटा गड़ा है तो मुझे पता चल रहा है, सिर में दर्द है तो मुझे पता चल रहा है, पेट में भूख है तो मुझे पता चल रहा है। मैं तो चेतना हूं जिसे पता चल रहा है। मैं भोक्ता नहीं हूं, सिर्फ ज्ञाता हूं। यह तो सत्य है।

लेकिन हमारी जो मनःस्थिति है वह ज्ञाता की नहीं, भोक्ता की है। जब ज्ञाता भोक्ता बन जाता है, जब वह जानता ही नहीं, बल्कि किया के साथ एक हो जाता है, जब वह दूर साक्षी नहीं रहता, भागीदार बन जाता है, तब आइडेंटिफिकेशन हो जाता है। तब वह एक हो जाता है। यह एक हो जाना ही जागने नहीं देता। क्योंकि जागने के लिए दूरी चाहिए, डिस्टेंस चाहिए, स्पेस चाहिए।

अगर मैं आपको देख पा रहा हूं तो इसीलिए कि आपके और मेरे बीच में दूरी है। अगर मेरे और आपके बीच की पूरी दूरी अलग कर दी जाए, तो मैं आपको देख नहीं पाऊंगा। आपको देख पाता हूं, क्योंकि मेरे और आपके बीच में जगह है, स्पेस है। अगर बीच का सारा स्थान अलग कर दिया जाए, तो फिर मैं आपको देख न पाऊंगा। इसीलिए तो मेरी आंखें आपको देख लेती हैं, लेकिन खुद मेरी ही आंखों को मेरी आंखें नहीं देख पातीं। अगर मुझे स्वयं को भी देखना है, तो एक दर्पण में दूसरा बनना पड़ता है और अपने से फासला पैदा करना पड़ता है तब देख पाता हूं। दर्पण का मतलब है कि मेरा चित्र अब मेरे से फासले पर है और अब मैं उसे देख लूंगा। दर्पण कुछ भी नहीं करता, दर्पण सिर्फ इतना करता है कि आपके चित्र को आपसे दूरी पर उपस्थित कर देता है। दूरी पर उपस्थित होने की वजह से बीच में स्पेस हो जाती है और आप देख लेते हैं।
दर्शन के लिए दूरी जरूरी है। और जो व्यक्ति अपने शरीर के साथ एक ही होकर जी रहा है या जो समझ रहा है कि मैं शरीर ही हूं, उसके और शरीर के बीच में कोई दूरी नहीं रह जाती।

एक मुसलमान फकीर हुआ फरीद। और एक दिन सुबह एक आदमी ने आकर उससे यही बात पूछी जो तुम मुझसे पूछ रहो हो। उस आदमी ने फरीद से आकर कहा कि मैंने सुना है कि जीसस को जब सूली लगी तब वे रोए नहीं, चिल्लाए नहीं, दुखी नहीं हुए। और मैंने यह भी सुना है कि जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मंसूर हंस रहा था। यह कैसे हो सकता है? यह असंभव है!

फरीद कुछ भी नहीं बोला, हंसता रहा। और पास में पड़े हुए एक नारियल को जो भक्त उसके पास चढा जाते थे, उसने उस आदमी को दिया और कहा कि तू जरा इस नारियल को ले जा, यह कच्चा नारियल है तो इसे तोड़कर ले आ। और ध्यान रखना, गिरी न टूट पाए। ऊपर की खोल अलग कर देना और गिरी को साबित ले आना।

उस आदमी ने कहा, यह न हो सकेगा। क्योंकि कच्चा है नारियल, गिरी और उसकी खोल के बीच फासला नहीं है। मैं उसकी खोल को तोडूगा, भीतर की गिरी टूट जाएगी।

फरीद ने कहा, फिर इसको छोड़ दे। यह दूसरा नारियल है, इसको ले जा। यह सूखा नारियल है। इसकी गिरी में और खोल में फासला है। क्या तू वायदा करता है कि इसकी खोल को तोड़ लाएगा, गिरी को साबित बचा लेगा?

उस आदमी ने कहा, यह कौन सी कठिन बात है। मैं खोल को तोड़े लाता हूं, गिरी साबित बच जाएगी। फरीद ने पूछा, लेकिन बात क्या है, इसकी गिरी क्यों बच जाएगी साबित? उसने कहा, नारियल सूखा हुआ है। गिरी और खोल के बीच फासला है। फरीद ने कहा, अब तोड्ने की फिक्र न कर। इस नारियल को भी यहीं रख दे। तुझे अपना जबाब मिल गया कि नहीं मिल गया?

उस आदमी ने कहा, मैं कुछ पूछ रहा था और आप कहा नारियल की बातों में मुझे उलझा दिये। मैं पूछता हूं कि जीसस को जब सूली लगी तो जीसस चिल्लाए क्यों नहीं, रोए क्यों नहीं? और जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मैसूर तड़फा क्यों नहीं? हंसा क्यों, मुस्कुराया क्यों?

फरीद ने कहा कि वे सूखे नारियल थे और हम गीले नारियल हैं, इससे ज्यादा और कोई कारण नहीं है। और जीसस को जब सूली दी जा रही थी तो जीसस को नहीं दी जा रही थी। जीसस देख रहे थे कि शरीर को सूली दी जा रही है और देखने में वे उतने ही फासले पर थे, जितना जीसस के बाहर खड़े हुए लोग फासले पर थे। जैसा बाहर खड़ा हुआ कोई आदमी नहीं चिल्लाया, कोई आदमी नहीं रोया कि मुझे मत मारो। क्यों? क्योंकि जीसस के शरीर से उन देखने वालों का फासला था। जीसस का भी—जो भीतर देखने वाला तत्व है —उसका और जीसस के शरीर का फासला था। इसलिए जीसस भी नहीं चिल्लाए कि मुझे मत मारो।

मैसूर के हाथ —पैर काटे गए और मैसूर हंसता रहा। और जब किसी ने पूछा कि तुम हंस क्यों रहे हो? तुम्हारे हाथ—पैर काटे जा रहे हैं! तो मैसूर ने कहा, अगर मुझे कांटा जाता तो मैं रोता। लेकिन मुझे नहीं कांटा जा रहा है। और जिसे तुम काट रहे हो

 नासमझों, वह मैं नहीं हूं। और मैं तुम पर इसलिए हंस रहा हूं कि जब तुम मेरे शरीर को मंसूर समझकर काट रहे हो, तो तुम दुखी होकर ही मरोगे, क्योंकि तुम अपने शरीर को भी स्वयं ही समझते रहोगे कि तुम वही हो। तुम मेरे साथ जो कर रहे हो, वह तुम्हारी अपने साथ की गई गलती की ही पुनरुक्ति है। अगर तुम्हें पता चल गया होता कि तुम शरीर से अलग हो, तो शायद तुम मेरे शरीर को काटने की कोशिश न करते। क्योंकि तुम जानते कि मैं तो कुछ और हूं? शरीर कुछ और है; और शरीर को काटने से मंसूर नहीं कटता।

तो सबसे बड़ी तैयारी मृत्यु में जागे हुए प्रवेश करने की, दुख में जागे हुए प्रवेश करना है। क्योंकि मृत्यु तो बार—बार नहीं आती, रोज नहीं आती। मृत्यु तो एक बार आएगी। आप तैयार होंगे तो तैयार होंगे, नहीं तैयार होंगे तो नहीं तैयार होंगे। मृत्यु का कोई रिहर्सल नहीं हो सकता। उसकी कोई पूर्व अभिनय की तैयारी नहीं हो सकती। लेकिन दुख रोज आता है, पीड़ा रोज आती है। पीड़ा और दुख में हम तैयारी कर सकते हैं। और ध्यान रहे, अगर पीड़ा और दुख में तैयारी हो गई तो मृत्यु में वह तैयारी काम आ जाएगी।

इसलिए दुख को सदा ही साधक ने स्वागत से स्वीकार किया है। उसका और कोई कारण नहीं है। उसका कारण यह नहीं है कि दुख शुभ है। उसका कारण सिर्फ यह है कि दुख उसे अवसर बनता है, स्वयं को साधने का। इसलिए साधक ने सदा ही दुख के लिए परमात्मा को धन्यवाद ही दिया है। क्योंकि दुख के क्षणों में वह अपने शरीर से दूर होने के लिए एक अवसर पाता है, एक मौका पाता है।

और ध्यान रहे, सुख के क्षण में यह साधना जरा मुश्किल है, दुख के क्षण में जरा आसान है। क्योंकि सुख के क्षण में तो हमारा मन ही नहीं करता है कि शरीर से जरा भी दूर हो जाएं। शरीर तो सुख के क्षण में बहुत प्यारा मालूम पड़ता है। शरीर से तो सुख के क्षण में मन होता है कि हम शरीर से इंच भर के फासले पर भी न हों! सुख के क्षण में हम शरीर के बहुत निकट सरक आते हैं। इसलिए सुख का खोजी अगर शरीर वादी हो जाता है तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और निरंतर सुख की खोज में लगा हुआ व्यक्ति अगर अपने को शरीर ही समझने लगता है तो भी कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि सुख के क्षण में वह सूखे नारियल की जगह गीला नारियल होने लगता है। फासला कम होने लगता है।

दुख के क्षण में तो मन होता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा है। जब सिर में दर्द होता है और जब पैर में चोट होती है और शरीर दुखता है, तो साधारणत: जो आदमी अपने को शरीर ही मानता है, वह भी एक क्षण सोच लेता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा। यह जो फकीर दुनिया भर के कहते रहे हैं अगर ठीक होता तो अच्छा कि हम शरीर न होते। उस वक्त उसका मन भी तैयार होता है कि किसी तरह यह पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए दुख का क्षण साधना का क्षण बन सकता है, बनाया जा सकता है।

लेकिन हम क्या करते हैं? साधारणत: हम दुख के क्षण में दुख को भूलने की कोशिश करते हैं। एक आदमी को तकलीफ है तो शराब पी लेगा। एक आदमी को दुख है तो सिनेमा में जाकर बैठ जाएगा। एक आदमी को दुख है तो भजन—कीर्तन करके भुलाने की कोशिश करने लगेगा। ये अलग— अलग तरकीबें हैं। कोई शराब पीता है, कहना चाहिए कि यह एक तरकीब है। कोई सिनेमा देखता
है, तो यह दूसरी तरकीब है। कोई जाकर संगीत सुनने बैठ जाता है, यह तीसरी तरकीब है। कोई झांझ—मंजीरा पीटकर भजन में लीन हो जाता है, यह चौथी तरकीब है। हजार तरकीबें हो सकती हैं; धार्मिक हो सकती हैं, अधार्मिक हो सकती हैं, सेक्यूलर हो सकती हैं, रिलीजस हो सकती हैं। यह सवाल बड़ा नहीं है। लेकिन भीतर बुनियादी बात एक ही है कि आदमी अपने दुख को भूलना चाह रहा है। फारगेटफुलनेस की कोशिश में लगा है। विस्मरण हो जाए।

और जो आदमी दुख को विस्मरण करेगा, वह आदमी दुख के प्रति जाग नहीं सकता। क्योंकि जिस चीज को हम भुला देते हैं, उसके प्रति जागेंगे कैसे। जाग सकते 'हैं उस चीज के प्रति, जिसके प्रति हमारा दृष्टिकोण रिमेंबरिंग का है, स्मरण का है।

इसलिए दुख के प्रति स्मरण ही दुख को जगाता है। जब आप दुख में हों, तो इसको एक अवसर समझें। और अपने दुख के प्रति पूरी स्मृति से भर जाएं। बड़े अदभुत अनुभव होंगे। जब आप दुख के प्रति पूरी स्मृति से भरेंगे और दुख को देखेंगे, भागेंगे नहीं दुख से। जैसे, पैर में दर्द है, चोट लग गई है, गिर गए हैं आप। तब आख बंद करके जरा भीतर दर्द को खोजने की कोशिश करें कि वह कहां है। उसे पिन स्काइट, उसे ठीक एक जगह पकड़ने की कोशिश करें कि वह दर्द है कहां। क्योंकि आप बड़े हैरान होंगे कि जितनी जगह दर्द होता है, उससे बहुत ज्यादा बड़ी जगह में आप उसे फैला लेते हैं। उतनी जगह होता नहीं।

|| ओशो ||

मैं मृत्यु सिखाता हूँ
प्रवचन - 12

Sunday 21 August 2016

Soul & Body Relationship: Great Philosophy By Great Philosopher Osho


  1. || आत्मा और अशरीरी रूप ||


आत्‍मा का अशरीरी रूप क्‍या होता है ? वह स्‍थिर होती है या विचरण करती है ? अपनी परिचित दूसरी आत्‍माओं को पहचानती कैसे है ? और उस अवस्‍था में आपस में कोई डायलॉग की भी संभावना होती है ?

इस संबंध में दो बातें ख्‍याल में लेनी चाहिए। एक तो स्‍थिरता और गति दोनों ही वह नहीं होती। और इस लिए समझना बहुत कठिन होगा। हमें समझना आसान होता है कि गति न हो, तो स्‍थिरता होगी। स्‍थिरता न हो, तो गति होगी। क्‍योंकि हमारे ख्‍याल में गति और स्‍थिरता दो ही संभावनाएं है। और एक न हो तो दूसरा अनिवार्य है। हम यह भी समझते है कि ये दोनों एक दूसरे से विरोधी है।

      पहली तो बात गति और स्‍थिरता विरोधी नहीं है। गति और स्‍थिरता एक ही चीज की तारतम्‍यताएं है। जिसको हम स्‍थिरता कहते है। वह ऐसी गति है। जो हमारी पकड़ में नहीं आती। जिसको हम गति कहते है वह भी ऐसी स्‍थिरता है जो हमारे ख्‍याल में नहीं आती। तो पहली तो बात गति और स्‍थिरता दो विरोधी चीजें नहीं है। बहुत तीव्र गति हो तो भी स्‍थिर मालूम होगी।

      यह ऊपर पंखा है, यह तेज गति से चलता हो तो इसकी तीन पंखुडियां दिखाई नहीं देंगे। बहुत तेज चले तो संभावना ही नहीं है, अनुमान करने की कि कितनी पंखुडियां है। क्‍योंकि बीच की जो खाली जगह है तीन पंखुड़ियों के, इसके पहले कि वह हमें दिखाई पड़ें, पंखुडी उस जगह को भर देती है। वह पंखा इतनी तेज चल सकता है कि हम इसके आर पार किसी चीज को भी न निकाल सकें। यह इतना तेज भी चल सकता है कि हम इसका छुएँ और इसकी गति न मालूम पड़े। जब हम किसी चीज को हाथ से छूत है, बीच का वो खाली हिस्‍सा है जो हमारे हाथ के स्‍पर्श के पकड़ने से पहले दुसरी पंखुडी फिर नीचे आ जाए तो हमें पता नहीं चल सकेगा। इस लिए विज्ञान कहता है इस लिए जो चीज हमे थिर मालूम पड़ती है, वह सब गति मान है। पर गति बहुत तीव्र है, हमारी पकड़ के बाहर है। तो गति और थिर होना दो चीजें नहीं है। और एक ही चीज की डिग्रीज़ है।

      उस जगत में जहां शरीर नहीं है। दोनों नहीं होंगी। क्‍योंकि जहां शरीर नहीं है वहां स्‍पेस भी नहीं है। टाइम भी नहीं है। जैसा हम जानते है, ऐसा कोई स्‍थान भी नहीं है। कोई समय भी नहीं है। समय और स्‍थान के बाहर किसी भी चीज को सोचना हमें अति कठिन है। क्‍योंकि हम ऐसी कोई चीज नहीं जानते जो समय और स्‍थान के बाहर हो।

      तो वहां क्‍या होगा अगर दोनों नहीं है तो?

      तो हमारे पास कोई शब्‍द नहीं है, जो कहे कि वहां क्‍या होगा। जब पहली दफा धर्म के अनुभव में उस स्‍थिति की खबरें आनी शुरू हुई तब भी यह कठिनाई खड़ी हुई। कहें क्‍या? ऐसे ठीक समानांतर उदाहरण विज्ञान के पास भी है। जहां कठिनाई खड़ी हो गई है कि क्‍या कहें? जब भी हमारी धारणाओं से भिन्‍न कोई स्‍थिति का अनुभव होता है तो बडी कठिनाई खड़ी होती है।

      जेसे कि पिछले साठ-सत्‍तर साल पहले जब पहली दफा इलैक्ट्रा का अनुभव विज्ञान को हुआ तो सवाल उठा कि इलेक्ट्रॉन कण है या तरंग? और बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। क्‍योंकि न तो उसे कण कह सकते , कण तो ठहरा हुआ होता है, तरंग गतिमान होती है। वह दोनों एक साथ है। तब सिर घूम जाता है, क्‍योंकि हमारी समझ में इन दोनों में से एक ही हो सकता है। और इलैक्ट्रा दोनों एक साथ है—कण भी ओ तरंग भी। कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह कण है। कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह तरंग है। और तब शब्‍द ही नहीं था। दुनिया की किसी भाषा में। और तब वैज्ञानिको ने कहा ये तो कण तरंग दोनों है। लेकिन उनके लिए भी कंसीवेब़ल नहीं रहा है। रहस्‍य हो गई बात। और जब आइंस्‍टीन से लोगों ने कहा कि आप दोनों बातें एक साथ कहते है जो कि तर्क में नहीं आती है; ये तो बड़ी रहस्‍य की बातें हो गई। तो आइंस्‍टीन ने कहा कि हम तर्क को माने कि तथ्‍य को मानें। तथ्‍य यही है कि वह दोनों है। एक साथ और तर्क यही कहता है कि दो में एक ही हो सकता है।

      अब एक आदमी खड़ा हुआ है या चल रहा है। तर्क कहेगा, दो में से एक ही हो सकता है। आप कहें कि वह खड़ा भी है और चल भी रहा है—एक साथ। तर्क नहीं मानेगा, तर्क के पास ऐसी कोई धारणा नहीं हे। लेकिन इलेक्ट्रॉन के अनुभव ने वैज्ञानिकों को कहा कि अब तर्क की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी। क्‍योंकि या तो तथ्‍य को झुठलाओ, सारे प्रयोग कहते है कि वह दोनों है। यह मैनें उदाहरण के लिए आपको कहा।

      सारे धार्मिक लोगों के अनुभव कहते है कि वह स्‍थिति दोनों नहीं है—न ठहरी हुई है, न गतिमान है। लेकिन जो भी यह कहेगा कि दोनों नहीं है अंतराल का क्षण , एक शरीर से छूटने और दूसरा शरीर के मिलने के बीच के क्षण में दोनों नहीं है। वह समझ के बाहर की बात है। इसलिए कुछ धर्मों ने तय किया है वे कहेंगे कि वह थिर है। कुछ धर्मों ने तय किया है कि वह  कहेंगें की वह गतिमान है। लेकिन वह सिर्फ समझाने की कठिनाई का परिणाम है। अन्‍यथा कोई इस बात के लिए राज़ी नहीं है कि वहां स्‍थिति  को स्‍थिति कहे की गति कहे। दोनों नहीं कहे जा सकते। क्‍योंकि जिस परिवेश में स्‍थिति और गति घटित होती है। वह परिवेश ही वहां नहीं है। स्‍थिति और गति दोनों के लिए शरीर चाहिए। शरीर के बिना गति नहीं हो सकती। और शरीर के बीना स्‍थिति भी नहीं हो सकती। उसी के माध्‍यम से गति हो सकती है।

      अब जैसे यह हाथ है मेरा, मैं इसे हिला रहा हूं या इसे ठहराए हुए हूं। कोई मुझसे पूछ सकता है कि इस हाथ के भीतर जो मेरी आत्‍मा है, जब हाथ नहीं रहेगा तो वह आत्‍मा ठहरी हुई रहेगी की गति में रहेगी। दोनों बातें व्‍यर्थ है। क्‍योंकि इस हाथ के बिना न वह गति कर सकती है और न ठहरी हुई हो सकती है। ठहराना और गति दोनों ही शरीर के गुण है। शरीर के बाहर ठहरने और गति का कोई भी अर्थ नहीं है।

      ठीक यही बात समस्‍त द्वंद्वों पर लागू होगी। बोलने या मौन होने पर शरीर के बीना न तो बोला जा सकता है और न मौन हुआ जा सकता है। आमतौर से हमारी समझ में आ जाएगी यह बात कि शरीर के बिना बोला नहीं जा सकता। लेकिन मौन भी नहीं हुआ जा सकता। यह समझ में आनी कठिन पड़ेगी। क्‍योंकि हम सोचते है शरीर के लिए मौन......। लेकिन असली बात यह है कि जिस माध्‍यम से बाला जा सकता है उसी माध्‍यम से मौन हुआ जा सकता है। क्‍योंकि मौन होना भी बोलने का एक ढंग है। मौन होना बोलने की ही एक अवस्‍था है। न बोलने की है, लेकिन है बोलने की ही।

      जैसे उदाहरण के लिए, एक आदमी अंधा है। तो हमे ख्‍याल होता है कि शायद उसको अँधेरा दिखाई देता होगा। वह हमारी भ्रांति है। अँधेरा देखने के लिए भी आँख जरूरी है। आँख के बिना अँधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता। पर हम आँख बंद करके सोचते है तो हम गलत है। क्‍योंकि आँख बंद करके भी आँख है, आप अंधे नहीं है। और अगर एक दफा आपके पास आँख है, आप अंधे नहीं है। और अगर एक आपके पास आँख रही हो और आप अंधे हो जाए, तो भी आपको अंधेरे का ख्‍याल रहेगा। जो कि झूठा है। जो कि जन्‍म से अंधे आदमी को नहीं है। क्‍यों कि अँधेरा जो है वह आँख का ही अनुभव है। जिससे प्रकाश का अनुभव होता है। उसी से अंधकार का भी अनुभव होता है। तो जो जन्‍मांध है, उसे अंधेरे का भी कोई पता नहीं होता। अँधेरा भी जानेगा कैसे?

      कान से आप सुनते है। भाषा से ठीक लगता है कि जिसके पास कान नहीं है, हम कहेंगे कि तुम मत कहो, वह नहीं सुन रहा। लेकिन नहीं सुनने की घटना भी नहीं घटती है। बहरे के लिए। नहीं सुनने की जो प्रतीति है, वह कान वाले कि प्रतीति है। कभी ऐसा होता है कि आप नहीं सुनते है। पर वह कान उसके लिए भी जरूरी है। कान के बिना ‘’नहीं सुनने’’ का भी कोई पता नहीं चल सकता है। वह अंधेरे की तरह है।

      तो जिस इंद्रिय से गति होती है। उसी इंद्रिय से ठहराव होता है। और दो में से एक भी चीज नहीं है। तो दूसरी भी नहीं होगी। तो वैसी अवस्‍था में आत्‍मा बोलती है या चुप रहती है। दोनों ही बातें संभव नहीं है। उपकरण ही नहीं है। बोलने का या चुप रहने का। ये सब उपकरण निर्भर घटनाएं है। इन दोनों के लिए उपकरण चाहिए। जगत के समस्‍त अनुभव के लिए उपकरण चाहिए। साधन चाहिए, इंद्रिय चाहिए।

      जहां भी शरीर नहीं हे। वहां शरीर से संबंधित समस्‍त अनुभव तिरोहित हो जाते है। फिर वहां कुछ बचेगा? अगर आपके जीवन में कोई भी शरीर के भीतर रहते हुए अशरीरी अनुभव हुआ हो, तो बचेगा। अन्‍यथा कुछ भी नहीं बचेगा। अगर आप के जीते जी, शरीर के रहते हुए कोई भी अनुभव हुआ हो जिसके लिए शरीर माध्‍यम नहीं था, वह बचेगा।

      ध्‍यान के कोई भी अनुभव हों गहरे, तो बचेंगे। साधारण अनुभव नहीं। ध्‍यान में आपको प्रकाश दिखाई पडा, वह नहीं बचेगा। लेकिन ध्‍यान में कोई ऐसा अनुभव हुआ हो जिससे शरीर ने कोई माध्‍यम का काम नहीं किया था। आप कह सकते थे कि शरीर था या नहीं यह भी मुझे कोई संबंध नहीं रह गया था। तो बच जाएगा। पर ऐसे अनुभव के लिए कोई भाषा नहीं है। शरीर रहते हुए भी हो, तो भी भाषा नहीं है। ये सारी कठिनाइयां है।

      फिर भी इसका यह मतलब नहीं है कि वैसी आत्‍मा मोक्ष में पहुंच गई, क्‍योंकि वे दोनों विवरण एक जैसे लगेंगे। फिर मोक्ष में और दो शरीरों के बीच में जो अंतराल है, इसमें क्‍या भेद रहा। भेद पोटेंशियलिटी के, बीज के रहेंगे, वास्‍तविकता के नहीं रहेंगे। दो शरीरों के बीच में जो अशरीरी व्‍यवधान है बीच का। उसमें आपके जीतने संस्कार है समस्‍त जन्‍मों के, वे बीज-रूप में सब मौजूद रहेंगे। शरीर के मिलते ही वह फिर से सक्रिय हो जायेंगे। जैसे एक आदमी के पैर हमने काट दिए, तो भी उसके दौड़ने के जो अनुभव है वे विदा नहीं हो जाएंगे। दौड़ नहीं सकता, रूक भी नहीं सकता, क्‍योंकि दौड़ नहीं सकता तो रुकेगा कैसे। लेकिन अगर पैर मिल जाएं तो दौड़ने की समस्‍त संस्‍कार धारा पुन: सक्रिय हो जाएगी।

      जैसे एक आदमी कार चलाता है। लेकिन कार छीन ली। तो अब कार नहीं चला सकता, ऐक्सलरेटर नहीं दबा सकता।  लेकिन ब्रेक भी नहीं लगा सकता। कार रोक भी नहीं सकता। वे दोनों ही कार के अनुभव थे। अब वह कार के बाहर है। लेकिन कार के चलाने का जो भी अनुभव है, वह सब बीज रूप में मौजूद है। वर्षों बाद, ऐक्सलरेटर पर पैर रखेगा, कार चला सकता है।

      मोक्ष में संस्‍कार-रहित हो जाता है। दो शरीरों के बीच में सिर्फ इंद्रिय-रहित होता है। मोक्ष में समस्‍त अनुभव, समस्‍त अनुभवजन्‍य संस्‍कार, सब कर्म, सब तिरोहित हो जाते है। उनकी निर्जरा हो जाती है। इस बीच और मोक्ष की अवस्‍था में एक समानता है—दोनों में शरीर नहीं होता। एक असमानता है—मोक्ष में शरीर नहीं होता, शरीर से संबंधित अनुभवों का जाल भी नहीं होता। यहां शरीर से संबंधित अनुभवों की सब सूक्ष्‍म तरंगें बीज रूप से मौजूद होती है। जो कभी भी सक्रिय हो सकती है। और इस बीच जो-जो अनुभव होंगे। वह शरीर जहां नहीं था, वैसे अनुभव होंगे। जैसे मैंने कहा कि ध्‍यान के अनुभव होंगे।

      लेकिन ध्‍यान के अनुभव तो बहुत कम लोगों के है। कभी करोड़ में किसी एक आदमी को ध्‍यान का अनुभव होता है। शेष का क्‍या कोई अनुभव नहीं होगा?

      अनुभव होगा—स्‍वप्‍न के अनुभव। स्‍वप्‍न में शरीर की कोई इंद्रियाँ काम नहीं करती। इस बात की संभावना है कि हम एक आदमी को जो स्वप्न में हो, और उसे स्‍वप्‍न में ही रखे हुए उसके सारे शरीर को काट कर अलग कर दें, तो आवश्‍यक नहीं है कि उसके स्‍वप्‍न में जरा सा भी भंग पड़े। कठिनाई है कि उसकी नींद टूट जाएगी। काश, हम उसे नींद में रख सके। और हम उसके एक-एक अंग को अलग करते चले जाए। तो उसका स्‍वप्‍न जरा भी भंग नहीं होगा। क्‍योंकि शरीर का कोई हिस्‍सा उसके स्‍वप्‍न में अनिवार्य नहीं है। स्‍वप्‍न में शरीर बिलकुल सक्रिय नहीं है। शरीर का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। स्‍वप्‍न के अनुभव आपके शेष रहेंगे। बल्‍कि आपके समस्‍त अनुभव स्‍वप्‍न का ही रूप लेकिन शेष रहेंगे।

      अगर कोई आपसे पूछे कि स्‍वप्‍न में आप थिर होते है कि गतिमान होत है? तो कठिनाई होगी, स्‍वप्‍न में थिर होते है कि गतिमान होत है? स्‍वप्‍न से जाग कर तो यह अनुभव होता है कि अपनी जगह पड़े है, थिर, स्‍वप्‍न के भीतर। लेकिन स्‍वप्‍न के बहार आकर पता चला की स्‍वप्‍न की भीतर तो गति थी। स्‍वप्‍न में गति भी नहीं होती। अगर बहुत ठीक से समझें तो स्‍वप्‍न में आप भागीदार भी नहीं होते। बहुत गहरे में केवल आप साक्षी होते है। इसलिए स्‍वप्‍न में आपने को मरता हुआ भी देख सकते है। और स्‍वप्‍न में आपने आप को चलता हुआ भी देख सकते है। स्‍वप्‍न में अपनी ला      श को पड़े हुए भी देख सकते है। और स्‍वप्‍न में अगर आप अपने को चलता भी देखते है, तो भी जिसे आप चलता देखते है वह सिर्फ स्‍वप्‍न होता है। आप तो देखने वाल ही होते है। स्‍वप्‍न को अगर ठीक से समझें तो आप सिर्फ विटनेस होते है स्‍वप्‍न में।

      इसीलिए धर्म ने एक सूत्र खोज निकाला कि जो व्‍यक्‍ति जगत को स्‍वप्‍न की भांति देखने लगे, वह परम अनुभूति को उपलब्‍ध हो जाएगा। इसलिए जगत को माया और स्‍वप्‍न कहने वाली चेतनाएं पैदा हुई। राज उनका यही है कि अगर जगत को हम सपने की भांति देखने लगें तो हम साक्षी हो जाएंगे। सपने में कभी भी कोई पार्टिसिपेंट नहीं होता। हमेशा विटनेस होता है, कभी भी किसी भी स्‍थिति में आप सपने में पात्र नहीं होते। भला आपको पात्र दिखाई पड़ें आप; लेकिन आप तो वही है जिसका दिखाई पड़ता है। आप हमेशा ही देखने वाले होते है। दर्शक होत है।

      तो जितने अनुभव होंगे। बीज होंगे। शरीर रहित होंगे। स्‍वप्‍न जैसे होंगे। जिनके अनुभव दुःख को निर्मित किए है वे नरक के स्‍वप्‍न देखेंगे, नाईटमेयर्स देखेंगे। जिनके अनुभव सुख को अर्जित किए है, वे स्‍वर्ग देखते रहेंगे। सुखद होंगे सपने उनके। लेकिन वे सब सपने जैसे अनुभव होंगे।

      कभी-कभी इसमें और भी घटनाएं घटेगी। उन घटनाओं के अनुभव में भेद पड़ेगा। कभी-कभी ऐसा होगा कि ये जो आत्माएं न गतिमान है, न चलित है, ये आत्माएं कभी-कभी किन्‍हीं शरीरों में प्रवेश कर जाएंगी। अब यह भाषा की ही भूल है, कि वे प्रवेश कर जाएंगी। उचित होगा ऐसा कहना कि कभी-कभी कोई शरीर इनको अपने में प्रवेश दे देगा।

      इन आत्‍माओं का लोक कुछ इससे भिन्‍न नहीं है। ठीक हमारे निकट और पड़ोस में है। ठीक हम एक ही जगत में अस्‍तित्‍ववान है। यहां इंच-इंच जगह भी आत्‍माओं से भरी है। यहां जो हमें खाली जगह दिखाई पड़ती है। वह भी भरी हुई है।

      अगर कोई भी शरीर किसी गहरी रिसेप्‍टिव हालत में हो, और दो तरह से शरीर-दूसरे लोगों के शरीर-ग्राहक अवस्‍था में होते है। या तो बहुत भयभीत अवस्‍था में। जितना भयभीत व्‍यक्‍ति होगा, उसकी खुद की आत्‍मा उसके शरीर में भीतर सुकड़ जाती है। मतलब शरीर के बहुत से हिस्‍सों को छोड़ देती है खाली। उन खाली जगहों में पास-पड़ोस की कोई भी आत्‍मा ऐसे गह सकती है जैसे गड्ढे में पानी बह जाता है। तब इसको जो अनुभव होते है वे ठीक वैसे ही हो जाते है जैसे शरीर धारी आत्‍मा को होते है। या बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में कोई आत्‍मा प्रवेश कर सकती है। बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी आत्‍मा सिकुड़ जाती है।

      लेकिन भय कि अवस्‍था में केवल वे ही आत्‍माएं सरक कर भीतर प्रवेश कर सकती है जो दुःख-स्‍वप्‍न देख रही हो। जिन्‍हें हम बुरी आत्‍माएं कहें। वे प्रवेश कर सकती है। क्‍योंकि भयभीत व्‍यक्‍ति बहुत ही कुरूप और गंदी स्‍थिति में है। उसमें कोई श्रेष्‍ठ आत्‍मा प्रवेश नहीं कर सकती। और भयभीत व्‍यक्‍ति गड़े की भांति है। जिसमें नीचे उतरने वाली आत्‍माएं ही प्रवेश कर सकती है।

      प्रार्थना से भरा हुआ व्‍यक्‍ति शिखर की भांति है, जिसमें सिर्फ ऊपर चढ़ने वाली आत्‍माएं प्रवेश कर सकती है। और प्रार्थना से भरा हुआ व्‍यक्‍ति इतनी आंतरिक सुगंध से और सौंदर्य से भरा हुआ होता है कि उनका रस तो केवल बहुत श्रेष्‍ठ आत्‍माएं को हो सकता है। वे भी निकट में है। तो जिनको इनवोकेशन कहते है, आह्वान कहते है। प्रार्थना कहते है। उसमे भी प्रवेश होता है। लेकिन श्रेष्‍ठतम आत्‍माएं का। उस समय अनुभव ठीक वैसे ही हो जाते है जैसे कि शरीर में हुए, इन दोनों अवस्‍थाओं में।

      तो जिनको देवताओं का आह्वान कहा जाता है, उसका पूरा विज्ञान है। वे देवता कही आकाश से नहीं आते। जिन्‍हें भूत-प्रेत कहा जाता है वे कही नरक से नहीं आते। किसी प्रेत लोक से नहीं आते। वे सब मौजूद है, यहीं, असल में एक ही स्‍थान पर मल्‍टी-डायमेंशनल एक्‍झिस्‍टेंस है। एक ही बिंदु पर बहुआयामी आस्‍तित्‍व है1 अब जैसे यह कमरा है, यहां हम बैठे है। हवा भी है यहां। यहां कोई घूप जला दे तो सुगंध भी भर जाएगी। यहां कोई गीत गाने लगे तो ध्‍वनि तरंगें भी भर जाएंगी। धूप का कोई कण ध्‍वनि तरंग के किसी कण से नहीं टकरायेगा। इस कमरे में संगीत भी भर सकता है। प्रकाश भी भर सकता है। लेकिन प्रकाश की कोई तरंग संगीत की किसी तरंग से टकराएँगीं नहीं। और न ही संगीत के भरने से प्रकाश की तरंगों को बहार निकलना पड़ेगा। कि तुम थोड़ी जगह खाली करो।

      असल में इसी स्‍थान को ध्वनि की तरंगें एक आयाम में भरती है। और प्रकाश की तरंगें दूसरे आयाम में। वायु की तरंगें तीसरे आयाम में भरती है। और इस तरह से हजारों आयाम इस कमरे को हजार तरह सक भरते है। एक दूसरे में कोई बाधा नहीं पड़ती। एक दूसरे को एक दूसरे के लिए कोई स्‍थान खाली नहीं करना होता। इसलिए स्‍पेस जो है वह मल्‍टी-डायमेंशनल है।

      यहां हमने एक टेबल रखी है। अब दूसरी टेबल नहीं रख सकते इस जगह। क्‍योंकि एक टेबल और दूसरी टेबल एक ही आयाम की है। तो इस टेबल को रख दिया तो इस स्‍थान पर—इस टेबल के स्‍थान पर—इस टेबल के स्‍थान पर दूसरी टेबल नहीं रख सकते। वह इसी आयाम की है। लेकिन दूसरे आयाम का आस्‍तित्‍व इस टेबल को कोई बाधा नहीं डालेगा।

      ये सारी आत्‍माएं ठीक हमारे निकट है। और कभी भी इनका प्रवेश हो सकता है। जब इनका प्रवेश होंगे तब जो इनके अनुभव होंगे वे ठीक वैसे ही हो जाएंगे जैसे शरीर में प्रवेश पर होते है।

                                           
     || ओशो |


Saturday 20 August 2016

Thoughts By Osho

अपने शरीर से विदा होने के संदर्भ में ओशो के कुछ विचार इस प्रकार हैं :



”मैं चाहता हूं कि मेरे संन्यासी मेरी स्वतंत्रता, मेरा होश, मेरा चैतन्य अपने उत्तराधिकार के रूप में ग्रहण कर लें। ”


”यदि तुमने मुझे प्रेम किया है तो तुम्हारे लिए मैं हमेशा जिंदा रहूंगा। मैं तुम्हारे प्रेम में जीऊंगा। यदि तुमने मुझे प्रेम किया है तो मेरा शरीर मिट जाएगा तब भी मैं तुम्हारे लिए नहीं मर सकता। ”


”तुम जहां भी हो, मौन तुम्हें मुझसे जोड़ देगा; और तुम्हारी प्रतीक्षा वह पृष्ठभूमि पैदा कर देगी जिसमें मेरा—तुम्हारा ऐसा मिलन हो सके जो अशरीरी, चिन्मय और शाश्वत हो।…


”मेरे साथ तुम बहुत समय तक रहे हो, तुम अच्छी तरह जानते हो कि मेरी मौजूदगी में तुम्हारे साथ क्या घटता है। बस इसे मौका दो. आंखें बंद कर लो, मौन होकर बैठ जाओ, और उसी घटना की प्रतीक्षा करो। और तुम हैरान होओगे कि मेरी शारीरिक उपस्थिति की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा हृदय उसी लय में धड़क सकता है—इस अनुभव से तुम परिचित हो। तुम्हारे प्राण उसी गहराई तक शांत हो सकते हैं—उसका तुम्हें भलीभांति अनुभव है। और फिर कोई दूरी नहीं रह जाती।…


”यदि संसार भर में तुम मेरी मौजूदगी को अनुभव करने लगो, तो कोई देश मेरी उपस्थिति को अपनी जमीन में प्रवेश करने से नहीं रोक सकता। कोई सरकार मुझे तुम्हारे हृदय में प्रवेश करने से नहीं रोक सकती।…


”तुम जहां भी हो मैं तुम्हें उपलब्ध हूं। तुम जहां भी हो मैं तुम्हारे साथ हूं। बस खुले रहो, ग्राहक रहो। ”


” (शरीर से विदा होकर ) मैं अपने लोगों में विलीन हो जाऊंगा। ठीक जैसे कि तुम सागर को कहीं से भी चखो तो उसे खारा पाओगे, ऐसे ही मेरे किसी भी संन्यासी को चखोगे और तुम भगवत्ता का स्वाद पाओगे।…


”मैं अपने लोगों को आनंदोत्सवपूर्वक, मस्तीपूर्वक जीने के लिए तैयार कर रहा हूं। तो जब मैं अपने शरीर में न रहूंगा, उससे उनको कोई फर्क न पड़ेगा। वे तब भी उसी ढंग से जीएंगे—और हो सकता है मेरी मृत्यु उनमें और भी त्वरा ला दे। ”


”मैं सब तरह के प्रयास करता रहा हूं कि तुम अपनी निजता के प्रति, अपनी स्वतंत्रता के प्रति सचेत रहो—बिना किसी सहायता के स्वयं के विकास की परम संभावना के प्रति सजग रहो।.. मैं पूरा प्रयास कर रहा हूं कि तुम सबसे मुक्त हो जाओ—मुझसे भी मुक्त हो जाओ और खोज की यात्रा में अकेले होने में तुम समर्थ हो जाओ।. और जो ध्यान की विधियां मैंने तुम्हें दी हैं, वे मुझ पर निर्भर नहीं हैं। मेरी उपस्थिति या अनुपस्थिति से उनमें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा।…


”तो स्मरण रखो, जब मैं विदा हो चुका होऊंगा, तब तुम कुछ खोने वाले नहीं हो। शायद तुम कुछ ऐसा उपलब्ध कर पाओगे, जिसका तुम्हें बिलकुल ही कोई बोध नहीं है।…


”जब मैं विदा हो जाऊंगा, तो मैं जा कहां सकता हूं? मैं यहां ही रहूंगा—हवाओं में, सागरों में। और यदि तुमने मुझे प्रेम किया है, यदि तुमने मुझ पर भरोसा किया है, तो तुम मुझे हजारों रूपों में अनुभव करोगे। अपने मौन क्षणों में अचानक तुम मेरी उपस्थिति को अनुभव करोगे।


”एक बार मैं देहमुक्त हुआ कि मेरी चेतना विश्वव्यापी हो जाएगी। अभी तुम्हें मेरे पास आना पडता है, तब तुम्हें मुझे खोजने और ढूंढने की जरूरत नहीं रहेगी। तुम जहां कहीं भी हो, तुम्हारी प्यास, तुम्हारा प्रेम—और तुम मुझे अपने हृदय में पाओगे, अपने हृदय की धडकन में ही पाओगे। ”


” अस्तित्व में मेरा भरोसा और मेरी आस्था समग्र है। जो मैं कह रहा हूं उसमें यदि कोई भी सत्य है तो वह पीछे जीवित बचेगा। जो लोग मेरे कार्य में उत्सुक बने रहेंगे वे बस मशाल को आगे ले चल रहे होंगे, बिना किसी पर कुछ थोपते हुए—न तलवार (बल प्रयोग ) के जरीए, न ब्रेड (लोभ प्रयोग ) के जरीए। मैं अपने लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहूंगा, और ऐसा अधिकांश संन्यासी अनुभव करेंगे। मैं चाहता हूं कि वे स्वयं ही विकसित हों.. ऐसे सद्गुण जैसे प्रेम—जिसके आसपास कोई चर्च—मंदिर—मस्जिद अथवा धर्म खड़ा नहीं किया जा सकता; जैसे जागरूकता—जिस पर किसी का एकाधिकार नहीं है; जैसे उत्सव, उल्लासमयता, और शिशु जैसी ताजी और निर्दोष आंखें बरकरार रखना। मैं चाहता हूं कि लोग स्वयं को जानें—किसी और के अनुसार न बनें; और इसका मार्ग है—भीतर। ”


”मेरे संबंध में कभी भी अतीत काल में बात मत करना। प्रताड़ित शरीर के बोझ से मुक्त होकर मेरी उपस्थिति कई गुना बढ़ जाएगी। मेरे लोगों को याद दिलाना कि वे अब मुझे और भी अधिक महसूस करेंगे—और वे इसे तत्‍क्षण पहचान जाएंगे। ”


” अब जब मैं अपना शरीर छोड़ रहा हूं और बहुत से लोग आएंगे, बहुत—बहुत से और लोगों का रस जगेगा। और मेरा कार्य इतने अविश्वसनीय रूप से बढ़ेगा, जिसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। ” 🏻🕉


Masters Osho .