Friday 11 November 2016

कामवासना के पार :MY WAY

||कामवासना और साक्षी ||


कामवासना के पार जाने के लिए अविवाहित रहने की सहज इच्छा रखने वाला साधक साक्षी— भाव को साधे या वासना में उतरकर उसकी व्यर्थता या सार्थकता को जान ले? अविवाहित रहने की सहज इच्छा क्या इस तथ्य को इंगित नहीं करती कि इसकी व्यर्थता को उसने अपने पिछले जन्मों की यात्रा में बहुत दूर तक जान लिया है? क्या साक्षी— भाव बिना उसकी पूर्ण व्यर्थता जाने नहीं साधा जा सकता?

पहली बात, अविवाहित होने की सहज इच्छा और अकाम, एक ही बात नहीं हैं। अगर वासना ही न उठती हो, तब तो कोई सवाल नहीं है। तब तो यह सवाल भी नहीं उठेगा। वासना ही न उठती हो, तो यह सवाल ही कहां उठता है!
अविवाहित रहने की इच्छा और वासना का न उठना अलग बातें हैं। अविवाहित तो बहुत— से लोग रहना चाहते हैं। वस्तुत: तो जो ठीक वासना से भरे हैं, वे विवाह से बचना चाहेंगे, क्योंकि विवाह उपद्रव है वासना से भरे आदमी के लिए। विवाह का मतलब है, एक स्त्री, एक पुरुष से बंध गए। और वासना बंधना नहीं चाहती; वासना उन्मूक्त रहना चाहती है।
तो विवाह न करने की इच्छा जरूरी नहीं है कि ब्रह्मचर्य की इच्छा हो। विवाह न करने की इच्छा बहुत गहरे में अब्रह्मचर्य की इच्छा भी हो सकती है।
फिर विवाह न करने की इच्छा के पीछे हजार कारण होते '। विवाह एक जिम्मेवारी है, एक उत्तरदायित्व है। सभी लोग उठाना भी नहीं चाहते। बहुत चालाक हैं, वे बिलकुल नहीं उठाना चाहेंगे। कौन उस झंझट में पड़े!
लेकिन वासना का न होना दूसरी बात है। विवाह का वासना से कोई लेना—देना नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है, किन्हीं और कारणों से।
एक नौकरानी रखना भी महंगा है घर में। एक पत्नी से ज्यादा सस्ता कोई भी उपाय नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है। और वासना से भरा हुआ आदमी विवाह से बच सकता है। इसलिए विवाह और वासना को पर्यायवाची न समझें।
चारों तरफ विवाह का दुख दिखाई पड़ता है। जिसमें थोड़ी भी बुद्धि है, वह विवाह से बचना चाहेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही है कि क्या नसरुद्दीन, कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी खयाल उठता है कि मुझसे तुमने विवाह न किया होता तो अच्छा होता? या ऐसा खयाल उठता है कभी कि मैंने—नसरुद्दीन की पत्नी ने—किसी और से विवाह कर लिया होता, तो अच्छा था न:
नसरुद्दीन ने कहा कि मैं किसी दूसरे का बुरा क्यों चाहने लगा! एक भावना जरूर मन में उठती है कि तू अगर सदा कुंआरी तो अच्छा था।
तो चारों तरफ विवाह आप देख रहे हैं। वहां जो दुख फैला हुआ है। हर बच्चे को उसके घर में दिखाई पड़ रहा है, उसके मां —बाप का दुख, बड़े भाइयों, उनकी पत्नियों का दुख। विवाह एक नरक है, चारों तरफ फैला हुआ है। बडी गहरी वासना है, इसलिए हम फिर भी विवाह में उतरते हैं। नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। अंधे हैं बिलकुल, शायद इसलिए। बिलकुल समझ से नहीं चलते। या हर आदमी को एक खयाल है भीतर कि मैं अपवाद हूं। इसलिए ये सब लोग दुख भोग रहे हैं, मैं थोडे ही भोगूंगा। हर आदमी को यह खयाल है।
अरब में कहावत है कि परमात्मा हर आदमी को बनाकर उसके कान में एक बात कह देता है कि तुझे मैंने अपवाद बनाया है। तेरे जैसा मैंने कोई बनाया ही नहीं। तू नियम नहीं है, तू एक्सेप्शन है। और हर आदमी इसी वहम में जीता है।
आप अपने जैसे पचास आदमियों को मरते देखें उसी गट्टे में। आप अकड़ से चलते जाएंगे कि मैं थोड़े ही! मैं बात ही अलग हूं। इस अपवाद के कारण आप विवाह में उतरते हैं। नहीं तो आंख खोलने वाली है, विवाह की घटना चारों तरफ घटी हुई है। उसमें कहीं कोई छिपा हुआ नहीं है मामला।
तो जरा भी समझ होगी, तो आपमें विवाह की सहज इच्छा न।? पैदा होगी। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि आपमें ब्रह्मचर्य की इच्छा पैदा हो रही है। ब्रह्मचर्य बड़ी दूसरी बात है। अकाम बड़ी दूसरी बात है।
यह जो अकाम है, अगर वह सहज है, तो यह प्रश्न ही नहीं उठेगा। फिर कहीं जाने का कोई सवाल नहीं है, किसी अनुभव में उतरने की जरूरत नहीं है। जिस बात की मन में वासना नहीं उठ। रही, उसके अनुभव में उतरने का प्रयोजन क्या है? और अनुभव में उतरूं या न उतरूं, यह भी खयाल क्यों उठेगा?
साफ है कि वासना भीतर मौजूद है। विवाह की जिम्मेवारी लेने का मन नहीं है। मन चालाक है और वह होशियारी की बातें कर रहा है।
तो मैं कहूंगा कि अगर मन में वासना हो, तो वासना में उतरना . ही उचित है। उतरने का मतलब यह नहीं है कि आप साक्षी— भाव खो दें। उतरें और साक्षी— भाव कायम रखें। उतरेंगे, तभी साक्षी— भाव को कसौटी भी है। और अगर नहीं उतरे, तो। साक्षी— भाव तो साधना मुश्किल है। और वासना सघन होती जाएगी, और मन में चक्कर कांटेगी, और मन को अनेक तरह की विकृतियों में, परवरशंस में ले जाएगी।
जिनको हम साधु —संत कहते हैं, आमतौर से विकृत मनों की अवस्था में पहुंच जाते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन मरा। उसके बहुत शिष्य भी थे। इस दुनिया में शिष्य खोजना जरा भी कठिन मामला नहीं है। अनेक लोग उसे मानते भी थे। कुछ दिनों बाद उसका एक शिष्य भी मरा। तो जाकर उसने पहला काम स्वर्ग में तलाश का किया कि नसरुद्दीन कहां है। पूछा—तांछा तो किसी ने खबर दी कि नसरुद्दीन वह सामने जो एक सफेद बदली है, उस पर मिलेगा।
भागा हुआ शिष्य अपने गुरु के पास पहुंचा। वहा जाकर उसने देखा, तो बहुत चकित रह गया। का नसरुद्दीन एक अति सुंदर स्त्री को अपनी गोद में बिठाए हुए है। उसने मन में सोचा कि मेरा गुरु! और यह तो सदा विपरीत बोलता था स्त्रियों के; और ब्रह्मचर्य के बड़े पक्ष में समझाता था। यह क्या हो गया! लेकिन तब उसे तत्‍क्षण खयाल आया उसके अचेतन से कि नहीं—नहीं, यह परमात्मा का दिया गया पुरस्कार होगा, यह जो स्त्री है। मेरे गुरु ने इतनी साधना की और इतनी तपश्चर्या करता था और इतना ज्ञानी था कि जरूर उसको पुरस्कार में यह सुंदरतम स्त्री मिली है।
तो वह भागा हुआ गया। उसने कहा, धन्यभाग, और परमात्मा का अनुग्रह, प्रभु की कृपा; कैसा पुरस्कार तुम्हें मिला! नसरुद्दीन ने कहा, पुरस्कार? यह मेरा पुरस्कार नहीं है, इस स्त्री को मैं दंड की तरह मिला हूं। शी इज नाट माई प्राइज; आई एम हर पनिशमेंट। लेकिन उस शिष्य के मन में, अचेतन में, यह खयाल आ जाना कि यह पुरस्कार मिला होगा, इस बात की खबर है कि वासना कायम है और इसको पुरस्कार मानती है।
इसलिए ऋषि—मुनि भी स्वर्ग में किस पुरस्कार की आशा कर रहे हैं? अप्सराएं, शराब के चश्मे, कल्पवृक्ष, उनके नीचे ऋषि—मुनि बैठे हैं और भोग रहे हैं!
तो जो आप छोड़ रहे हैं, वह छोड़ नहीं रहे हैं। वह कुछ सौदा है गहरा और उसमें पुरस्कार की आशा कायम है। यह इस बात की सूचना है कि ये मन विकृत हैं। ये स्वस्थ मन नहीं हैं।
जिन—जिन के स्वर्ग में अप्सराओं की व्यवस्था है, उन—उन का ब्रह्मचर्य परवटेंड है, विकृत है। और जिन्होंने स्वर्ग में शराब के चश्मे बहाए हैं, उनके शराब का त्याग बेईमानी है, झूठा है। जो वे यहां नहीं पा सकते या यहां जिसको छोड़ने को कहते हैं, वहां उसको पाने का इंतजाम कर लेते हैं। यह मन की दौड़ साफ है। यह गणित सीधा है।
तो मैं तो कहूंगा कि बजाय वासना को दबाने, विकृत करने के साक्षी— भाव से उसमें उतर जाना उचित है। संसार एक अवसर है। यहां जो भी है, अगर उसका जरा भी मन में रस है, तो उसमें उतर जाएं, भागें मत। नहीं तो वह स्वर्ग तक आपका पीछा करेगा। आखिरी क्षण तक आपका पीछा करेगा। उसमें उतर ही जाएं। उसका अनुभव ले ही लें।
अनुभव मुक्तिदायी है, अगर होश कायम रखें। नहीं तो अनुभव पुनरुक्ति बन जाता है और नए चक्कर में ले जाता है।
इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मात्र अनुभव से आप मुक्त हो जाएंगे। अनुभव और साक्षी का भाव संयुक्त हो, तो आप मुक। हो जाएंगे। अकेला अनुभव हो, तो आपकी आदत और गहरी होती जाएगी। और फिर आदत के वश आप दौड़ते रहेंगे। और अकेला साक्षी— भाव हो और अनुभव से बचने का डर हो, तो वह साक्षी— भाव कमजोर और झूठा है। क्योंकि साक्षी— भाव को कोई भय नहीं है। न किसी चीज के करने का भय है, और न न करने का भय है।
साक्षी— भाव को कर्म का प्रयोजन ही नहीं है। जो भी हो रहा है, उसे देखता रहेगा। तो साक्षी मंदिर में बैठा हो कि वेश्यालय में, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि साक्षी का काम सिर्फ देखने का है।
कथा है बौद्ध साहित्य में, आनंद एक गांव से गुजर रहा है—बुद्ध का शिष्य। और कथा है कि एक वेश्या ने आनंद को देखा। आनंद सुंदर था। संन्यस्त व्यक्ति अक्सर सुंदर हो जाते हैं। और संन्यस्त व्यक्तियों में अक्सर एक आकर्षण आ जाता है, जो गृहस्थ में नहीं होता। एक व्यक्तित्व में आभा आ जाती है।
वह वेश्या मोहित हो गई। और कथा यह है कि उसने कुछ तंत्र—मंत्र किया। बुद्ध देख रहे हैं दूर अपने वन में वृक्ष के नीचे बैठे। दूर घटना घट रही है, आनंद बहुत दूर है, लेकिन कथा यह है कि बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध देख सकते हैं। वे देख रहे हैं। बुद्ध के पास सारिपुत्त, उनका शिष्य भी बैठा हुआ है। वह भी देख रहा है।
सारिपुत्त बुद्ध से कहता है, आप आनंद को बचाएं। वह किसी मुश्किल में न पड़ जाए। क्योंकि स्त्री बड़ी रूपवान है और उसने बडा गहरा तंत्र—मंत्र फेंका है। और आनंद कहीं ठगा न जाए। लेकिन बुद्ध देखते रहते हैं।
अचानक बुद्ध उठकर खड़े हो जाते हैं और सारिपुत्त से कहते हैं, अब कुछ करना होगा। सारिपुत्त कहता है, अब क्या हो गया जो आप करने के लिए कहते हैं? अब तक मैं आपसे कह रहा था, कुछ करें। आप चुप बैठे रहे। जो बीमारी शुरू हुई, उसे पहले ही रोक देना उचित है!
बुद्ध ने कहा, बीमारी अब तक शुरू नहीं हुई थी; अब शुरू हुई है। आनंद मूर्च्छित हो गया, साक्षी— भाव खो गया। अभी तक कोई डर नहीं था। वेश्या हो, सुंदर हो, कुछ भी हो, अभी तक कोई भय न था। और आनंद उसके घर में चला जाए; रात वहा टिके, कोई भय की बात नहीं थी। अब भय खड़ा हो गया है।
लेकिन सारिपुत्त बडा चकित है, क्योंकि आनंद अब भाग रहा है। वेश्या बहुत दूर रह गई है। जब बुद्ध कहते हैं, भय हो गया है, तब आनंद वेश्या से दूर निकल गया है भागकर और उसने पीठ कर ली है। वह लौटकर भी नहीं देख रहा है। लेकिन बुद्ध खड़े हैं। और वे कहते हैं, इस समय आनंद को सहायता की जरूरत है।
सारिपुत्त कहता है, आप भी अनूठी बातें करते हैं! जब वेश्या सामने खड़ी थी और आनंद उसको देख रहा— था और डर था कि वह लोभित हो जाए, मोहित हो जाए, तब आप चुपचाप बैठे रहे। और अब जब कि आनंद भाग रहा है, और वेश्या दूर रह गई है, और उसके मंत्र—तंत्र पीछे पडे रह गए हैं, और उसके प्रभाव का क्षेत्र पार कर गया है आनंद, और आनंद लौटकर भी नहीं देख रहा है, तो अब आपके खड़े होने की क्या जरूरत है?
बुद्ध ने कहा, वह भाग ही इसलिए रहा है कि साक्षी— भाव खो गया। अब वह कर्ता— भाव में आ गया है। और कर्ता की वजह से डरा हुआ है। और अब वह डर रहा है। जब तक साक्षी था, तब तक खड़ा था, डर के कोई कारण भी न थे। अब उसको सहायता की जरूरत है।
एक ही बात करने जैसी है कि आपके भीतर साक्षी— भाव बना रहे। फिर आप कुछ भी करें, विवाह करें, न करें, कुछ भी करें, साक्षी— भाव आपके अनुभव में जुड़ा रहे, तो आप आज नहीं कल अपनी मुक्ति की सीढ़ियां पूरी कर लेंगे।
लेकिन ध्यान रहे, अधूरे और कच्चे अनुभवों को रोकने का परिणाम विषाक्त होता है। भागें मत, डरें मत, साक्षी को ही सम्हाले। मेरा सारा जोर इस बात पर है कि आप जागे, बजाय भागने के। भागकर कहं। जाएंगे? विवाह न करें, यह हो सकता है। लेकिन कितने लोग विवाह न करने से कुछ कहीं पहुंच नहीं जाते। विवाह न करने का परिणाम चित्त में और वासनाओं का जाल होता है।
अगर एक विवाहित और एक अविवाहित आदमी की जांच की जाए बैठकर, तो अविवाहित आदमी के मन में ज्यादा वासना मिलेगी। स्वाभाविक है। जैसे एक भूखे आदमी की और भोजन किए आदमी की जांच की जाए, तो भूखे आदमी के मन में भोजन का ज्यादा खयाल मिलेगा। जिसका पेट भरा है, उसके मन में भोजन का खयाल क्यों होगा!
तो जब तक आपको भीतर का साक्षी ही न जगने लगे, तब तक जीवन के किसी अनुभव से अकारण अधूरे में, अधकचरे में भागना उचित नहीं है। उस भय से कोई किसी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है। सारा जीवन अनुभव के लिए है। यह ऐसा ही है, जैसे हम किसी विद्यार्थी को विश्वविद्यालय भेज दें और वह वहा परीक्षाओं से बचने लगे। यह संसार परीक्षालय है। वहां आपकी चेतना इसीलिए
है, ताकि अनुभवों से गुजरकर परिपक्व हो जाए।
तो मैं तो कहूंगा, सब अनुभव भोग लें, बुरे को भी। अगर जरा भी रस हो बुरे में, तो उसको भी भोग लें। बस इतना ही खयाल रखें कि भोगते समय में भी होश बना रहे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। और अगर आप डरे, जिम्मेवारी से बचना चाहा, तो वासनाएं विकृत हो जाएंगी और भीतर मन में घूमती रहेंगी।
उन विकृत वासनाओं के परिणाम कभी भी मुक्तिदायी नहीं हैं। स्वास्थ्य से तो कोई मुक्त हो सकता है, विकृति से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
तो सहज हों, स्वाभाविक हों। और जो भी मन में उठता हो, उसको उठने दें, उसको पूरा भी होने दें। सिर्फ एक ही बात खयाल रखें कि पीछे एक देखने वाला भी खडा रहे और देखता रहे। आपकी पूरी जिंदगी एक नाटक हो जाए और आप उसको देखते रहें। यह देखना ही सारी जिंदगी को बदल देगा। यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, देखने के द्वारा पूरी जिंदगी को बदल लेना।
भागने के द्वारा कोई कभी नहीं बदलता। भागने से सिर्फ कमजोरी जाहिर होती है। और भागे हुए आदमी की वासनाएं पीछा करती हैं। वह जहां भी चला जाए, वासनाएं उसके पीछे होंगी।

ओशो
गीता दर्शन, भाग -7