मृत्यु के समय जागे रहने की तैयारी
भगवान श्री मृत्यु में भी जागे रहने के लिए या ध्यान में सचेतन मृत्यु की घटना को सफलतापूर्वक आयोजित करने के लिए शरीर— प्रणाली श्वास— प्रणाली श्वास की स्थिति प्राणों की स्थिति ब्रह्मचर्य मनशक्ति आदि के संबंध में क्या— क्या तैयारियां साधक की होनी चाहिए
इस पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें। ?
मृत्यु में जागे हुए रहने के लिए सबसे पहली तैयारी दुख में जागे रहने की करनी पडती है। साधारणत: जो दुख में ही मूर्च्छित हो जाता है, उसकी मृत्यु में जागे रहने की संभावना नहीं है। और दुख में मूर्च्छित होने का क्या अर्थ है, यह समझ लेना जरूरी है। तो दुख में जागे रहने का अर्थ भी समझ में आ जाएगा।
जब भी हम दुख में होते हैं तो मूर्च्छित होने का अर्थ होता है, दुख के साथ आइडेंटिफिकेशन, दुख के साथ तादात्म्य। जब आपका सिर दुखता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर कहीं दुख रहा है और आप जान रहे हैं। ऐसा लगता है कि मैं ही दुख रहा हूं।
जब आप को बुखार होता है और शरीर उत्तप्त होता है, तब ऐसा नहीं लगता है कि कहीं दूर शरीर गर्म हो गया है। ऐसा लगने लगता है कि मैं ही गर्म हो गया हूं। यह है आइडेंटिफिकेशन, यह है तादात्म्य। जब पैर में चोट लगती है और घाव हो जाता है, तो पैर में चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा नहीं मालूम पड़ता है। मुझे चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा मालूम पड़ता है।
असल में शरीर के साथ हमारा कोई फासला नहीं, कोई डिस्टेंस नहीं। शरीर के साथ हम एक ही होकर जीते हैं। जब भूख लगती है, तो हम ऐसा नहीं कहते कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। हम ऐसा ही कहते हैं कि मुझे भूख लगी है। सचाई यह नहीं है। सचाई यह है कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। मैं तो बोध का बिंदु हूं। मुझे तो निरंतर पता चल रहा है। पैर में कांटा गड़ा है तो मुझे पता चल रहा है, सिर में दर्द है तो मुझे पता चल रहा है, पेट में भूख है तो मुझे पता चल रहा है। मैं तो चेतना हूं जिसे पता चल रहा है। मैं भोक्ता नहीं हूं, सिर्फ ज्ञाता हूं। यह तो सत्य है।
लेकिन हमारी जो मनःस्थिति है वह ज्ञाता की नहीं, भोक्ता की है। जब ज्ञाता भोक्ता बन जाता है, जब वह जानता ही नहीं, बल्कि किया के साथ एक हो जाता है, जब वह दूर साक्षी नहीं रहता, भागीदार बन जाता है, तब आइडेंटिफिकेशन हो जाता है। तब वह एक हो जाता है। यह एक हो जाना ही जागने नहीं देता। क्योंकि जागने के लिए दूरी चाहिए, डिस्टेंस चाहिए, स्पेस चाहिए।
अगर मैं आपको देख पा रहा हूं तो इसीलिए कि आपके और मेरे बीच में दूरी है। अगर मेरे और आपके बीच की पूरी दूरी अलग कर दी जाए, तो मैं आपको देख नहीं पाऊंगा। आपको देख पाता हूं, क्योंकि मेरे और आपके बीच में जगह है, स्पेस है। अगर बीच का सारा स्थान अलग कर दिया जाए, तो फिर मैं आपको देख न पाऊंगा। इसीलिए तो मेरी आंखें आपको देख लेती हैं, लेकिन खुद मेरी ही आंखों को मेरी आंखें नहीं देख पातीं। अगर मुझे स्वयं को भी देखना है, तो एक दर्पण में दूसरा बनना पड़ता है और अपने से फासला पैदा करना पड़ता है तब देख पाता हूं। दर्पण का मतलब है कि मेरा चित्र अब मेरे से फासले पर है और अब मैं उसे देख लूंगा। दर्पण कुछ भी नहीं करता, दर्पण सिर्फ इतना करता है कि आपके चित्र को आपसे दूरी पर उपस्थित कर देता है। दूरी पर उपस्थित होने की वजह से बीच में स्पेस हो जाती है और आप देख लेते हैं।
दर्शन के लिए दूरी जरूरी है। और जो व्यक्ति अपने शरीर के साथ एक ही होकर जी रहा है या जो समझ रहा है कि मैं शरीर ही हूं, उसके और शरीर के बीच में कोई दूरी नहीं रह जाती।
एक मुसलमान फकीर हुआ फरीद। और एक दिन सुबह एक आदमी ने आकर उससे यही बात पूछी जो तुम मुझसे पूछ रहो हो। उस आदमी ने फरीद से आकर कहा कि मैंने सुना है कि जीसस को जब सूली लगी तब वे रोए नहीं, चिल्लाए नहीं, दुखी नहीं हुए। और मैंने यह भी सुना है कि जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मंसूर हंस रहा था। यह कैसे हो सकता है? यह असंभव है!
फरीद कुछ भी नहीं बोला, हंसता रहा। और पास में पड़े हुए एक नारियल को जो भक्त उसके पास चढा जाते थे, उसने उस आदमी को दिया और कहा कि तू जरा इस नारियल को ले जा, यह कच्चा नारियल है तो इसे तोड़कर ले आ। और ध्यान रखना, गिरी न टूट पाए। ऊपर की खोल अलग कर देना और गिरी को साबित ले आना।
उस आदमी ने कहा, यह न हो सकेगा। क्योंकि कच्चा है नारियल, गिरी और उसकी खोल के बीच फासला नहीं है। मैं उसकी खोल को तोडूगा, भीतर की गिरी टूट जाएगी।
फरीद ने कहा, फिर इसको छोड़ दे। यह दूसरा नारियल है, इसको ले जा। यह सूखा नारियल है। इसकी गिरी में और खोल में फासला है। क्या तू वायदा करता है कि इसकी खोल को तोड़ लाएगा, गिरी को साबित बचा लेगा?
उस आदमी ने कहा, यह कौन सी कठिन बात है। मैं खोल को तोड़े लाता हूं, गिरी साबित बच जाएगी। फरीद ने पूछा, लेकिन बात क्या है, इसकी गिरी क्यों बच जाएगी साबित? उसने कहा, नारियल सूखा हुआ है। गिरी और खोल के बीच फासला है। फरीद ने कहा, अब तोड्ने की फिक्र न कर। इस नारियल को भी यहीं रख दे। तुझे अपना जबाब मिल गया कि नहीं मिल गया?
उस आदमी ने कहा, मैं कुछ पूछ रहा था और आप कहा नारियल की बातों में मुझे उलझा दिये। मैं पूछता हूं कि जीसस को जब सूली लगी तो जीसस चिल्लाए क्यों नहीं, रोए क्यों नहीं? और जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मैसूर तड़फा क्यों नहीं? हंसा क्यों, मुस्कुराया क्यों?
फरीद ने कहा कि वे सूखे नारियल थे और हम गीले नारियल हैं, इससे ज्यादा और कोई कारण नहीं है। और जीसस को जब सूली दी जा रही थी तो जीसस को नहीं दी जा रही थी। जीसस देख रहे थे कि शरीर को सूली दी जा रही है और देखने में वे उतने ही फासले पर थे, जितना जीसस के बाहर खड़े हुए लोग फासले पर थे। जैसा बाहर खड़ा हुआ कोई आदमी नहीं चिल्लाया, कोई आदमी नहीं रोया कि मुझे मत मारो। क्यों? क्योंकि जीसस के शरीर से उन देखने वालों का फासला था। जीसस का भी—जो भीतर देखने वाला तत्व है —उसका और जीसस के शरीर का फासला था। इसलिए जीसस भी नहीं चिल्लाए कि मुझे मत मारो।
मैसूर के हाथ —पैर काटे गए और मैसूर हंसता रहा। और जब किसी ने पूछा कि तुम हंस क्यों रहे हो? तुम्हारे हाथ—पैर काटे जा रहे हैं! तो मैसूर ने कहा, अगर मुझे कांटा जाता तो मैं रोता। लेकिन मुझे नहीं कांटा जा रहा है। और जिसे तुम काट रहे हो
नासमझों, वह मैं नहीं हूं। और मैं तुम पर इसलिए हंस रहा हूं कि जब तुम मेरे शरीर को मंसूर समझकर काट रहे हो, तो तुम दुखी होकर ही मरोगे, क्योंकि तुम अपने शरीर को भी स्वयं ही समझते रहोगे कि तुम वही हो। तुम मेरे साथ जो कर रहे हो, वह तुम्हारी अपने साथ की गई गलती की ही पुनरुक्ति है। अगर तुम्हें पता चल गया होता कि तुम शरीर से अलग हो, तो शायद तुम मेरे शरीर को काटने की कोशिश न करते। क्योंकि तुम जानते कि मैं तो कुछ और हूं? शरीर कुछ और है; और शरीर को काटने से मंसूर नहीं कटता।
तो सबसे बड़ी तैयारी मृत्यु में जागे हुए प्रवेश करने की, दुख में जागे हुए प्रवेश करना है। क्योंकि मृत्यु तो बार—बार नहीं आती, रोज नहीं आती। मृत्यु तो एक बार आएगी। आप तैयार होंगे तो तैयार होंगे, नहीं तैयार होंगे तो नहीं तैयार होंगे। मृत्यु का कोई रिहर्सल नहीं हो सकता। उसकी कोई पूर्व अभिनय की तैयारी नहीं हो सकती। लेकिन दुख रोज आता है, पीड़ा रोज आती है। पीड़ा और दुख में हम तैयारी कर सकते हैं। और ध्यान रहे, अगर पीड़ा और दुख में तैयारी हो गई तो मृत्यु में वह तैयारी काम आ जाएगी।
इसलिए दुख को सदा ही साधक ने स्वागत से स्वीकार किया है। उसका और कोई कारण नहीं है। उसका कारण यह नहीं है कि दुख शुभ है। उसका कारण सिर्फ यह है कि दुख उसे अवसर बनता है, स्वयं को साधने का। इसलिए साधक ने सदा ही दुख के लिए परमात्मा को धन्यवाद ही दिया है। क्योंकि दुख के क्षणों में वह अपने शरीर से दूर होने के लिए एक अवसर पाता है, एक मौका पाता है।
और ध्यान रहे, सुख के क्षण में यह साधना जरा मुश्किल है, दुख के क्षण में जरा आसान है। क्योंकि सुख के क्षण में तो हमारा मन ही नहीं करता है कि शरीर से जरा भी दूर हो जाएं। शरीर तो सुख के क्षण में बहुत प्यारा मालूम पड़ता है। शरीर से तो सुख के क्षण में मन होता है कि हम शरीर से इंच भर के फासले पर भी न हों! सुख के क्षण में हम शरीर के बहुत निकट सरक आते हैं। इसलिए सुख का खोजी अगर शरीर वादी हो जाता है तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और निरंतर सुख की खोज में लगा हुआ व्यक्ति अगर अपने को शरीर ही समझने लगता है तो भी कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि सुख के क्षण में वह सूखे नारियल की जगह गीला नारियल होने लगता है। फासला कम होने लगता है।
दुख के क्षण में तो मन होता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा है। जब सिर में दर्द होता है और जब पैर में चोट होती है और शरीर दुखता है, तो साधारणत: जो आदमी अपने को शरीर ही मानता है, वह भी एक क्षण सोच लेता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा। यह जो फकीर दुनिया भर के कहते रहे हैं अगर ठीक होता तो अच्छा कि हम शरीर न होते। उस वक्त उसका मन भी तैयार होता है कि किसी तरह यह पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए दुख का क्षण साधना का क्षण बन सकता है, बनाया जा सकता है।
लेकिन हम क्या करते हैं? साधारणत: हम दुख के क्षण में दुख को भूलने की कोशिश करते हैं। एक आदमी को तकलीफ है तो शराब पी लेगा। एक आदमी को दुख है तो सिनेमा में जाकर बैठ जाएगा। एक आदमी को दुख है तो भजन—कीर्तन करके भुलाने की कोशिश करने लगेगा। ये अलग— अलग तरकीबें हैं। कोई शराब पीता है, कहना चाहिए कि यह एक तरकीब है। कोई सिनेमा देखता
है, तो यह दूसरी तरकीब है। कोई जाकर संगीत सुनने बैठ जाता है, यह तीसरी तरकीब है। कोई झांझ—मंजीरा पीटकर भजन में लीन हो जाता है, यह चौथी तरकीब है। हजार तरकीबें हो सकती हैं; धार्मिक हो सकती हैं, अधार्मिक हो सकती हैं, सेक्यूलर हो सकती हैं, रिलीजस हो सकती हैं। यह सवाल बड़ा नहीं है। लेकिन भीतर बुनियादी बात एक ही है कि आदमी अपने दुख को भूलना चाह रहा है। फारगेटफुलनेस की कोशिश में लगा है। विस्मरण हो जाए।
और जो आदमी दुख को विस्मरण करेगा, वह आदमी दुख के प्रति जाग नहीं सकता। क्योंकि जिस चीज को हम भुला देते हैं, उसके प्रति जागेंगे कैसे। जाग सकते 'हैं उस चीज के प्रति, जिसके प्रति हमारा दृष्टिकोण रिमेंबरिंग का है, स्मरण का है।
इसलिए दुख के प्रति स्मरण ही दुख को जगाता है। जब आप दुख में हों, तो इसको एक अवसर समझें। और अपने दुख के प्रति पूरी स्मृति से भर जाएं। बड़े अदभुत अनुभव होंगे। जब आप दुख के प्रति पूरी स्मृति से भरेंगे और दुख को देखेंगे, भागेंगे नहीं दुख से। जैसे, पैर में दर्द है, चोट लग गई है, गिर गए हैं आप। तब आख बंद करके जरा भीतर दर्द को खोजने की कोशिश करें कि वह कहां है। उसे पिन स्काइट, उसे ठीक एक जगह पकड़ने की कोशिश करें कि वह दर्द है कहां। क्योंकि आप बड़े हैरान होंगे कि जितनी जगह दर्द होता है, उससे बहुत ज्यादा बड़ी जगह में आप उसे फैला लेते हैं। उतनी जगह होता नहीं।
|| ओशो ||
मैं मृत्यु सिखाता हूँ
प्रवचन - 12
भगवान श्री मृत्यु में भी जागे रहने के लिए या ध्यान में सचेतन मृत्यु की घटना को सफलतापूर्वक आयोजित करने के लिए शरीर— प्रणाली श्वास— प्रणाली श्वास की स्थिति प्राणों की स्थिति ब्रह्मचर्य मनशक्ति आदि के संबंध में क्या— क्या तैयारियां साधक की होनी चाहिए
इस पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें। ?
मृत्यु में जागे हुए रहने के लिए सबसे पहली तैयारी दुख में जागे रहने की करनी पडती है। साधारणत: जो दुख में ही मूर्च्छित हो जाता है, उसकी मृत्यु में जागे रहने की संभावना नहीं है। और दुख में मूर्च्छित होने का क्या अर्थ है, यह समझ लेना जरूरी है। तो दुख में जागे रहने का अर्थ भी समझ में आ जाएगा।
जब भी हम दुख में होते हैं तो मूर्च्छित होने का अर्थ होता है, दुख के साथ आइडेंटिफिकेशन, दुख के साथ तादात्म्य। जब आपका सिर दुखता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर कहीं दुख रहा है और आप जान रहे हैं। ऐसा लगता है कि मैं ही दुख रहा हूं।
जब आप को बुखार होता है और शरीर उत्तप्त होता है, तब ऐसा नहीं लगता है कि कहीं दूर शरीर गर्म हो गया है। ऐसा लगने लगता है कि मैं ही गर्म हो गया हूं। यह है आइडेंटिफिकेशन, यह है तादात्म्य। जब पैर में चोट लगती है और घाव हो जाता है, तो पैर में चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा नहीं मालूम पड़ता है। मुझे चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा मालूम पड़ता है।
असल में शरीर के साथ हमारा कोई फासला नहीं, कोई डिस्टेंस नहीं। शरीर के साथ हम एक ही होकर जीते हैं। जब भूख लगती है, तो हम ऐसा नहीं कहते कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। हम ऐसा ही कहते हैं कि मुझे भूख लगी है। सचाई यह नहीं है। सचाई यह है कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। मैं तो बोध का बिंदु हूं। मुझे तो निरंतर पता चल रहा है। पैर में कांटा गड़ा है तो मुझे पता चल रहा है, सिर में दर्द है तो मुझे पता चल रहा है, पेट में भूख है तो मुझे पता चल रहा है। मैं तो चेतना हूं जिसे पता चल रहा है। मैं भोक्ता नहीं हूं, सिर्फ ज्ञाता हूं। यह तो सत्य है।
लेकिन हमारी जो मनःस्थिति है वह ज्ञाता की नहीं, भोक्ता की है। जब ज्ञाता भोक्ता बन जाता है, जब वह जानता ही नहीं, बल्कि किया के साथ एक हो जाता है, जब वह दूर साक्षी नहीं रहता, भागीदार बन जाता है, तब आइडेंटिफिकेशन हो जाता है। तब वह एक हो जाता है। यह एक हो जाना ही जागने नहीं देता। क्योंकि जागने के लिए दूरी चाहिए, डिस्टेंस चाहिए, स्पेस चाहिए।
अगर मैं आपको देख पा रहा हूं तो इसीलिए कि आपके और मेरे बीच में दूरी है। अगर मेरे और आपके बीच की पूरी दूरी अलग कर दी जाए, तो मैं आपको देख नहीं पाऊंगा। आपको देख पाता हूं, क्योंकि मेरे और आपके बीच में जगह है, स्पेस है। अगर बीच का सारा स्थान अलग कर दिया जाए, तो फिर मैं आपको देख न पाऊंगा। इसीलिए तो मेरी आंखें आपको देख लेती हैं, लेकिन खुद मेरी ही आंखों को मेरी आंखें नहीं देख पातीं। अगर मुझे स्वयं को भी देखना है, तो एक दर्पण में दूसरा बनना पड़ता है और अपने से फासला पैदा करना पड़ता है तब देख पाता हूं। दर्पण का मतलब है कि मेरा चित्र अब मेरे से फासले पर है और अब मैं उसे देख लूंगा। दर्पण कुछ भी नहीं करता, दर्पण सिर्फ इतना करता है कि आपके चित्र को आपसे दूरी पर उपस्थित कर देता है। दूरी पर उपस्थित होने की वजह से बीच में स्पेस हो जाती है और आप देख लेते हैं।
दर्शन के लिए दूरी जरूरी है। और जो व्यक्ति अपने शरीर के साथ एक ही होकर जी रहा है या जो समझ रहा है कि मैं शरीर ही हूं, उसके और शरीर के बीच में कोई दूरी नहीं रह जाती।
एक मुसलमान फकीर हुआ फरीद। और एक दिन सुबह एक आदमी ने आकर उससे यही बात पूछी जो तुम मुझसे पूछ रहो हो। उस आदमी ने फरीद से आकर कहा कि मैंने सुना है कि जीसस को जब सूली लगी तब वे रोए नहीं, चिल्लाए नहीं, दुखी नहीं हुए। और मैंने यह भी सुना है कि जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मंसूर हंस रहा था। यह कैसे हो सकता है? यह असंभव है!
फरीद कुछ भी नहीं बोला, हंसता रहा। और पास में पड़े हुए एक नारियल को जो भक्त उसके पास चढा जाते थे, उसने उस आदमी को दिया और कहा कि तू जरा इस नारियल को ले जा, यह कच्चा नारियल है तो इसे तोड़कर ले आ। और ध्यान रखना, गिरी न टूट पाए। ऊपर की खोल अलग कर देना और गिरी को साबित ले आना।
उस आदमी ने कहा, यह न हो सकेगा। क्योंकि कच्चा है नारियल, गिरी और उसकी खोल के बीच फासला नहीं है। मैं उसकी खोल को तोडूगा, भीतर की गिरी टूट जाएगी।
फरीद ने कहा, फिर इसको छोड़ दे। यह दूसरा नारियल है, इसको ले जा। यह सूखा नारियल है। इसकी गिरी में और खोल में फासला है। क्या तू वायदा करता है कि इसकी खोल को तोड़ लाएगा, गिरी को साबित बचा लेगा?
उस आदमी ने कहा, यह कौन सी कठिन बात है। मैं खोल को तोड़े लाता हूं, गिरी साबित बच जाएगी। फरीद ने पूछा, लेकिन बात क्या है, इसकी गिरी क्यों बच जाएगी साबित? उसने कहा, नारियल सूखा हुआ है। गिरी और खोल के बीच फासला है। फरीद ने कहा, अब तोड्ने की फिक्र न कर। इस नारियल को भी यहीं रख दे। तुझे अपना जबाब मिल गया कि नहीं मिल गया?
उस आदमी ने कहा, मैं कुछ पूछ रहा था और आप कहा नारियल की बातों में मुझे उलझा दिये। मैं पूछता हूं कि जीसस को जब सूली लगी तो जीसस चिल्लाए क्यों नहीं, रोए क्यों नहीं? और जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मैसूर तड़फा क्यों नहीं? हंसा क्यों, मुस्कुराया क्यों?
फरीद ने कहा कि वे सूखे नारियल थे और हम गीले नारियल हैं, इससे ज्यादा और कोई कारण नहीं है। और जीसस को जब सूली दी जा रही थी तो जीसस को नहीं दी जा रही थी। जीसस देख रहे थे कि शरीर को सूली दी जा रही है और देखने में वे उतने ही फासले पर थे, जितना जीसस के बाहर खड़े हुए लोग फासले पर थे। जैसा बाहर खड़ा हुआ कोई आदमी नहीं चिल्लाया, कोई आदमी नहीं रोया कि मुझे मत मारो। क्यों? क्योंकि जीसस के शरीर से उन देखने वालों का फासला था। जीसस का भी—जो भीतर देखने वाला तत्व है —उसका और जीसस के शरीर का फासला था। इसलिए जीसस भी नहीं चिल्लाए कि मुझे मत मारो।
मैसूर के हाथ —पैर काटे गए और मैसूर हंसता रहा। और जब किसी ने पूछा कि तुम हंस क्यों रहे हो? तुम्हारे हाथ—पैर काटे जा रहे हैं! तो मैसूर ने कहा, अगर मुझे कांटा जाता तो मैं रोता। लेकिन मुझे नहीं कांटा जा रहा है। और जिसे तुम काट रहे हो
नासमझों, वह मैं नहीं हूं। और मैं तुम पर इसलिए हंस रहा हूं कि जब तुम मेरे शरीर को मंसूर समझकर काट रहे हो, तो तुम दुखी होकर ही मरोगे, क्योंकि तुम अपने शरीर को भी स्वयं ही समझते रहोगे कि तुम वही हो। तुम मेरे साथ जो कर रहे हो, वह तुम्हारी अपने साथ की गई गलती की ही पुनरुक्ति है। अगर तुम्हें पता चल गया होता कि तुम शरीर से अलग हो, तो शायद तुम मेरे शरीर को काटने की कोशिश न करते। क्योंकि तुम जानते कि मैं तो कुछ और हूं? शरीर कुछ और है; और शरीर को काटने से मंसूर नहीं कटता।
तो सबसे बड़ी तैयारी मृत्यु में जागे हुए प्रवेश करने की, दुख में जागे हुए प्रवेश करना है। क्योंकि मृत्यु तो बार—बार नहीं आती, रोज नहीं आती। मृत्यु तो एक बार आएगी। आप तैयार होंगे तो तैयार होंगे, नहीं तैयार होंगे तो नहीं तैयार होंगे। मृत्यु का कोई रिहर्सल नहीं हो सकता। उसकी कोई पूर्व अभिनय की तैयारी नहीं हो सकती। लेकिन दुख रोज आता है, पीड़ा रोज आती है। पीड़ा और दुख में हम तैयारी कर सकते हैं। और ध्यान रहे, अगर पीड़ा और दुख में तैयारी हो गई तो मृत्यु में वह तैयारी काम आ जाएगी।
इसलिए दुख को सदा ही साधक ने स्वागत से स्वीकार किया है। उसका और कोई कारण नहीं है। उसका कारण यह नहीं है कि दुख शुभ है। उसका कारण सिर्फ यह है कि दुख उसे अवसर बनता है, स्वयं को साधने का। इसलिए साधक ने सदा ही दुख के लिए परमात्मा को धन्यवाद ही दिया है। क्योंकि दुख के क्षणों में वह अपने शरीर से दूर होने के लिए एक अवसर पाता है, एक मौका पाता है।
और ध्यान रहे, सुख के क्षण में यह साधना जरा मुश्किल है, दुख के क्षण में जरा आसान है। क्योंकि सुख के क्षण में तो हमारा मन ही नहीं करता है कि शरीर से जरा भी दूर हो जाएं। शरीर तो सुख के क्षण में बहुत प्यारा मालूम पड़ता है। शरीर से तो सुख के क्षण में मन होता है कि हम शरीर से इंच भर के फासले पर भी न हों! सुख के क्षण में हम शरीर के बहुत निकट सरक आते हैं। इसलिए सुख का खोजी अगर शरीर वादी हो जाता है तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और निरंतर सुख की खोज में लगा हुआ व्यक्ति अगर अपने को शरीर ही समझने लगता है तो भी कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि सुख के क्षण में वह सूखे नारियल की जगह गीला नारियल होने लगता है। फासला कम होने लगता है।
दुख के क्षण में तो मन होता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा है। जब सिर में दर्द होता है और जब पैर में चोट होती है और शरीर दुखता है, तो साधारणत: जो आदमी अपने को शरीर ही मानता है, वह भी एक क्षण सोच लेता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा। यह जो फकीर दुनिया भर के कहते रहे हैं अगर ठीक होता तो अच्छा कि हम शरीर न होते। उस वक्त उसका मन भी तैयार होता है कि किसी तरह यह पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए दुख का क्षण साधना का क्षण बन सकता है, बनाया जा सकता है।
लेकिन हम क्या करते हैं? साधारणत: हम दुख के क्षण में दुख को भूलने की कोशिश करते हैं। एक आदमी को तकलीफ है तो शराब पी लेगा। एक आदमी को दुख है तो सिनेमा में जाकर बैठ जाएगा। एक आदमी को दुख है तो भजन—कीर्तन करके भुलाने की कोशिश करने लगेगा। ये अलग— अलग तरकीबें हैं। कोई शराब पीता है, कहना चाहिए कि यह एक तरकीब है। कोई सिनेमा देखता
है, तो यह दूसरी तरकीब है। कोई जाकर संगीत सुनने बैठ जाता है, यह तीसरी तरकीब है। कोई झांझ—मंजीरा पीटकर भजन में लीन हो जाता है, यह चौथी तरकीब है। हजार तरकीबें हो सकती हैं; धार्मिक हो सकती हैं, अधार्मिक हो सकती हैं, सेक्यूलर हो सकती हैं, रिलीजस हो सकती हैं। यह सवाल बड़ा नहीं है। लेकिन भीतर बुनियादी बात एक ही है कि आदमी अपने दुख को भूलना चाह रहा है। फारगेटफुलनेस की कोशिश में लगा है। विस्मरण हो जाए।
और जो आदमी दुख को विस्मरण करेगा, वह आदमी दुख के प्रति जाग नहीं सकता। क्योंकि जिस चीज को हम भुला देते हैं, उसके प्रति जागेंगे कैसे। जाग सकते 'हैं उस चीज के प्रति, जिसके प्रति हमारा दृष्टिकोण रिमेंबरिंग का है, स्मरण का है।
इसलिए दुख के प्रति स्मरण ही दुख को जगाता है। जब आप दुख में हों, तो इसको एक अवसर समझें। और अपने दुख के प्रति पूरी स्मृति से भर जाएं। बड़े अदभुत अनुभव होंगे। जब आप दुख के प्रति पूरी स्मृति से भरेंगे और दुख को देखेंगे, भागेंगे नहीं दुख से। जैसे, पैर में दर्द है, चोट लग गई है, गिर गए हैं आप। तब आख बंद करके जरा भीतर दर्द को खोजने की कोशिश करें कि वह कहां है। उसे पिन स्काइट, उसे ठीक एक जगह पकड़ने की कोशिश करें कि वह दर्द है कहां। क्योंकि आप बड़े हैरान होंगे कि जितनी जगह दर्द होता है, उससे बहुत ज्यादा बड़ी जगह में आप उसे फैला लेते हैं। उतनी जगह होता नहीं।
|| ओशो ||
मैं मृत्यु सिखाता हूँ
प्रवचन - 12