Friday, 11 November 2016

कामवासना के पार :MY WAY

||कामवासना और साक्षी ||


कामवासना के पार जाने के लिए अविवाहित रहने की सहज इच्छा रखने वाला साधक साक्षी— भाव को साधे या वासना में उतरकर उसकी व्यर्थता या सार्थकता को जान ले? अविवाहित रहने की सहज इच्छा क्या इस तथ्य को इंगित नहीं करती कि इसकी व्यर्थता को उसने अपने पिछले जन्मों की यात्रा में बहुत दूर तक जान लिया है? क्या साक्षी— भाव बिना उसकी पूर्ण व्यर्थता जाने नहीं साधा जा सकता?

पहली बात, अविवाहित होने की सहज इच्छा और अकाम, एक ही बात नहीं हैं। अगर वासना ही न उठती हो, तब तो कोई सवाल नहीं है। तब तो यह सवाल भी नहीं उठेगा। वासना ही न उठती हो, तो यह सवाल ही कहां उठता है!
अविवाहित रहने की इच्छा और वासना का न उठना अलग बातें हैं। अविवाहित तो बहुत— से लोग रहना चाहते हैं। वस्तुत: तो जो ठीक वासना से भरे हैं, वे विवाह से बचना चाहेंगे, क्योंकि विवाह उपद्रव है वासना से भरे आदमी के लिए। विवाह का मतलब है, एक स्त्री, एक पुरुष से बंध गए। और वासना बंधना नहीं चाहती; वासना उन्मूक्त रहना चाहती है।
तो विवाह न करने की इच्छा जरूरी नहीं है कि ब्रह्मचर्य की इच्छा हो। विवाह न करने की इच्छा बहुत गहरे में अब्रह्मचर्य की इच्छा भी हो सकती है।
फिर विवाह न करने की इच्छा के पीछे हजार कारण होते '। विवाह एक जिम्मेवारी है, एक उत्तरदायित्व है। सभी लोग उठाना भी नहीं चाहते। बहुत चालाक हैं, वे बिलकुल नहीं उठाना चाहेंगे। कौन उस झंझट में पड़े!
लेकिन वासना का न होना दूसरी बात है। विवाह का वासना से कोई लेना—देना नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है, किन्हीं और कारणों से।
एक नौकरानी रखना भी महंगा है घर में। एक पत्नी से ज्यादा सस्ता कोई भी उपाय नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है। और वासना से भरा हुआ आदमी विवाह से बच सकता है। इसलिए विवाह और वासना को पर्यायवाची न समझें।
चारों तरफ विवाह का दुख दिखाई पड़ता है। जिसमें थोड़ी भी बुद्धि है, वह विवाह से बचना चाहेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही है कि क्या नसरुद्दीन, कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी खयाल उठता है कि मुझसे तुमने विवाह न किया होता तो अच्छा होता? या ऐसा खयाल उठता है कभी कि मैंने—नसरुद्दीन की पत्नी ने—किसी और से विवाह कर लिया होता, तो अच्छा था न:
नसरुद्दीन ने कहा कि मैं किसी दूसरे का बुरा क्यों चाहने लगा! एक भावना जरूर मन में उठती है कि तू अगर सदा कुंआरी तो अच्छा था।
तो चारों तरफ विवाह आप देख रहे हैं। वहां जो दुख फैला हुआ है। हर बच्चे को उसके घर में दिखाई पड़ रहा है, उसके मां —बाप का दुख, बड़े भाइयों, उनकी पत्नियों का दुख। विवाह एक नरक है, चारों तरफ फैला हुआ है। बडी गहरी वासना है, इसलिए हम फिर भी विवाह में उतरते हैं। नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। अंधे हैं बिलकुल, शायद इसलिए। बिलकुल समझ से नहीं चलते। या हर आदमी को एक खयाल है भीतर कि मैं अपवाद हूं। इसलिए ये सब लोग दुख भोग रहे हैं, मैं थोडे ही भोगूंगा। हर आदमी को यह खयाल है।
अरब में कहावत है कि परमात्मा हर आदमी को बनाकर उसके कान में एक बात कह देता है कि तुझे मैंने अपवाद बनाया है। तेरे जैसा मैंने कोई बनाया ही नहीं। तू नियम नहीं है, तू एक्सेप्शन है। और हर आदमी इसी वहम में जीता है।
आप अपने जैसे पचास आदमियों को मरते देखें उसी गट्टे में। आप अकड़ से चलते जाएंगे कि मैं थोड़े ही! मैं बात ही अलग हूं। इस अपवाद के कारण आप विवाह में उतरते हैं। नहीं तो आंख खोलने वाली है, विवाह की घटना चारों तरफ घटी हुई है। उसमें कहीं कोई छिपा हुआ नहीं है मामला।
तो जरा भी समझ होगी, तो आपमें विवाह की सहज इच्छा न।? पैदा होगी। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि आपमें ब्रह्मचर्य की इच्छा पैदा हो रही है। ब्रह्मचर्य बड़ी दूसरी बात है। अकाम बड़ी दूसरी बात है।
यह जो अकाम है, अगर वह सहज है, तो यह प्रश्न ही नहीं उठेगा। फिर कहीं जाने का कोई सवाल नहीं है, किसी अनुभव में उतरने की जरूरत नहीं है। जिस बात की मन में वासना नहीं उठ। रही, उसके अनुभव में उतरने का प्रयोजन क्या है? और अनुभव में उतरूं या न उतरूं, यह भी खयाल क्यों उठेगा?
साफ है कि वासना भीतर मौजूद है। विवाह की जिम्मेवारी लेने का मन नहीं है। मन चालाक है और वह होशियारी की बातें कर रहा है।
तो मैं कहूंगा कि अगर मन में वासना हो, तो वासना में उतरना . ही उचित है। उतरने का मतलब यह नहीं है कि आप साक्षी— भाव खो दें। उतरें और साक्षी— भाव कायम रखें। उतरेंगे, तभी साक्षी— भाव को कसौटी भी है। और अगर नहीं उतरे, तो। साक्षी— भाव तो साधना मुश्किल है। और वासना सघन होती जाएगी, और मन में चक्कर कांटेगी, और मन को अनेक तरह की विकृतियों में, परवरशंस में ले जाएगी।
जिनको हम साधु —संत कहते हैं, आमतौर से विकृत मनों की अवस्था में पहुंच जाते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन मरा। उसके बहुत शिष्य भी थे। इस दुनिया में शिष्य खोजना जरा भी कठिन मामला नहीं है। अनेक लोग उसे मानते भी थे। कुछ दिनों बाद उसका एक शिष्य भी मरा। तो जाकर उसने पहला काम स्वर्ग में तलाश का किया कि नसरुद्दीन कहां है। पूछा—तांछा तो किसी ने खबर दी कि नसरुद्दीन वह सामने जो एक सफेद बदली है, उस पर मिलेगा।
भागा हुआ शिष्य अपने गुरु के पास पहुंचा। वहा जाकर उसने देखा, तो बहुत चकित रह गया। का नसरुद्दीन एक अति सुंदर स्त्री को अपनी गोद में बिठाए हुए है। उसने मन में सोचा कि मेरा गुरु! और यह तो सदा विपरीत बोलता था स्त्रियों के; और ब्रह्मचर्य के बड़े पक्ष में समझाता था। यह क्या हो गया! लेकिन तब उसे तत्‍क्षण खयाल आया उसके अचेतन से कि नहीं—नहीं, यह परमात्मा का दिया गया पुरस्कार होगा, यह जो स्त्री है। मेरे गुरु ने इतनी साधना की और इतनी तपश्चर्या करता था और इतना ज्ञानी था कि जरूर उसको पुरस्कार में यह सुंदरतम स्त्री मिली है।
तो वह भागा हुआ गया। उसने कहा, धन्यभाग, और परमात्मा का अनुग्रह, प्रभु की कृपा; कैसा पुरस्कार तुम्हें मिला! नसरुद्दीन ने कहा, पुरस्कार? यह मेरा पुरस्कार नहीं है, इस स्त्री को मैं दंड की तरह मिला हूं। शी इज नाट माई प्राइज; आई एम हर पनिशमेंट। लेकिन उस शिष्य के मन में, अचेतन में, यह खयाल आ जाना कि यह पुरस्कार मिला होगा, इस बात की खबर है कि वासना कायम है और इसको पुरस्कार मानती है।
इसलिए ऋषि—मुनि भी स्वर्ग में किस पुरस्कार की आशा कर रहे हैं? अप्सराएं, शराब के चश्मे, कल्पवृक्ष, उनके नीचे ऋषि—मुनि बैठे हैं और भोग रहे हैं!
तो जो आप छोड़ रहे हैं, वह छोड़ नहीं रहे हैं। वह कुछ सौदा है गहरा और उसमें पुरस्कार की आशा कायम है। यह इस बात की सूचना है कि ये मन विकृत हैं। ये स्वस्थ मन नहीं हैं।
जिन—जिन के स्वर्ग में अप्सराओं की व्यवस्था है, उन—उन का ब्रह्मचर्य परवटेंड है, विकृत है। और जिन्होंने स्वर्ग में शराब के चश्मे बहाए हैं, उनके शराब का त्याग बेईमानी है, झूठा है। जो वे यहां नहीं पा सकते या यहां जिसको छोड़ने को कहते हैं, वहां उसको पाने का इंतजाम कर लेते हैं। यह मन की दौड़ साफ है। यह गणित सीधा है।
तो मैं तो कहूंगा कि बजाय वासना को दबाने, विकृत करने के साक्षी— भाव से उसमें उतर जाना उचित है। संसार एक अवसर है। यहां जो भी है, अगर उसका जरा भी मन में रस है, तो उसमें उतर जाएं, भागें मत। नहीं तो वह स्वर्ग तक आपका पीछा करेगा। आखिरी क्षण तक आपका पीछा करेगा। उसमें उतर ही जाएं। उसका अनुभव ले ही लें।
अनुभव मुक्तिदायी है, अगर होश कायम रखें। नहीं तो अनुभव पुनरुक्ति बन जाता है और नए चक्कर में ले जाता है।
इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मात्र अनुभव से आप मुक्त हो जाएंगे। अनुभव और साक्षी का भाव संयुक्त हो, तो आप मुक। हो जाएंगे। अकेला अनुभव हो, तो आपकी आदत और गहरी होती जाएगी। और फिर आदत के वश आप दौड़ते रहेंगे। और अकेला साक्षी— भाव हो और अनुभव से बचने का डर हो, तो वह साक्षी— भाव कमजोर और झूठा है। क्योंकि साक्षी— भाव को कोई भय नहीं है। न किसी चीज के करने का भय है, और न न करने का भय है।
साक्षी— भाव को कर्म का प्रयोजन ही नहीं है। जो भी हो रहा है, उसे देखता रहेगा। तो साक्षी मंदिर में बैठा हो कि वेश्यालय में, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि साक्षी का काम सिर्फ देखने का है।
कथा है बौद्ध साहित्य में, आनंद एक गांव से गुजर रहा है—बुद्ध का शिष्य। और कथा है कि एक वेश्या ने आनंद को देखा। आनंद सुंदर था। संन्यस्त व्यक्ति अक्सर सुंदर हो जाते हैं। और संन्यस्त व्यक्तियों में अक्सर एक आकर्षण आ जाता है, जो गृहस्थ में नहीं होता। एक व्यक्तित्व में आभा आ जाती है।
वह वेश्या मोहित हो गई। और कथा यह है कि उसने कुछ तंत्र—मंत्र किया। बुद्ध देख रहे हैं दूर अपने वन में वृक्ष के नीचे बैठे। दूर घटना घट रही है, आनंद बहुत दूर है, लेकिन कथा यह है कि बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध देख सकते हैं। वे देख रहे हैं। बुद्ध के पास सारिपुत्त, उनका शिष्य भी बैठा हुआ है। वह भी देख रहा है।
सारिपुत्त बुद्ध से कहता है, आप आनंद को बचाएं। वह किसी मुश्किल में न पड़ जाए। क्योंकि स्त्री बड़ी रूपवान है और उसने बडा गहरा तंत्र—मंत्र फेंका है। और आनंद कहीं ठगा न जाए। लेकिन बुद्ध देखते रहते हैं।
अचानक बुद्ध उठकर खड़े हो जाते हैं और सारिपुत्त से कहते हैं, अब कुछ करना होगा। सारिपुत्त कहता है, अब क्या हो गया जो आप करने के लिए कहते हैं? अब तक मैं आपसे कह रहा था, कुछ करें। आप चुप बैठे रहे। जो बीमारी शुरू हुई, उसे पहले ही रोक देना उचित है!
बुद्ध ने कहा, बीमारी अब तक शुरू नहीं हुई थी; अब शुरू हुई है। आनंद मूर्च्छित हो गया, साक्षी— भाव खो गया। अभी तक कोई डर नहीं था। वेश्या हो, सुंदर हो, कुछ भी हो, अभी तक कोई भय न था। और आनंद उसके घर में चला जाए; रात वहा टिके, कोई भय की बात नहीं थी। अब भय खड़ा हो गया है।
लेकिन सारिपुत्त बडा चकित है, क्योंकि आनंद अब भाग रहा है। वेश्या बहुत दूर रह गई है। जब बुद्ध कहते हैं, भय हो गया है, तब आनंद वेश्या से दूर निकल गया है भागकर और उसने पीठ कर ली है। वह लौटकर भी नहीं देख रहा है। लेकिन बुद्ध खड़े हैं। और वे कहते हैं, इस समय आनंद को सहायता की जरूरत है।
सारिपुत्त कहता है, आप भी अनूठी बातें करते हैं! जब वेश्या सामने खड़ी थी और आनंद उसको देख रहा— था और डर था कि वह लोभित हो जाए, मोहित हो जाए, तब आप चुपचाप बैठे रहे। और अब जब कि आनंद भाग रहा है, और वेश्या दूर रह गई है, और उसके मंत्र—तंत्र पीछे पडे रह गए हैं, और उसके प्रभाव का क्षेत्र पार कर गया है आनंद, और आनंद लौटकर भी नहीं देख रहा है, तो अब आपके खड़े होने की क्या जरूरत है?
बुद्ध ने कहा, वह भाग ही इसलिए रहा है कि साक्षी— भाव खो गया। अब वह कर्ता— भाव में आ गया है। और कर्ता की वजह से डरा हुआ है। और अब वह डर रहा है। जब तक साक्षी था, तब तक खड़ा था, डर के कोई कारण भी न थे। अब उसको सहायता की जरूरत है।
एक ही बात करने जैसी है कि आपके भीतर साक्षी— भाव बना रहे। फिर आप कुछ भी करें, विवाह करें, न करें, कुछ भी करें, साक्षी— भाव आपके अनुभव में जुड़ा रहे, तो आप आज नहीं कल अपनी मुक्ति की सीढ़ियां पूरी कर लेंगे।
लेकिन ध्यान रहे, अधूरे और कच्चे अनुभवों को रोकने का परिणाम विषाक्त होता है। भागें मत, डरें मत, साक्षी को ही सम्हाले। मेरा सारा जोर इस बात पर है कि आप जागे, बजाय भागने के। भागकर कहं। जाएंगे? विवाह न करें, यह हो सकता है। लेकिन कितने लोग विवाह न करने से कुछ कहीं पहुंच नहीं जाते। विवाह न करने का परिणाम चित्त में और वासनाओं का जाल होता है।
अगर एक विवाहित और एक अविवाहित आदमी की जांच की जाए बैठकर, तो अविवाहित आदमी के मन में ज्यादा वासना मिलेगी। स्वाभाविक है। जैसे एक भूखे आदमी की और भोजन किए आदमी की जांच की जाए, तो भूखे आदमी के मन में भोजन का ज्यादा खयाल मिलेगा। जिसका पेट भरा है, उसके मन में भोजन का खयाल क्यों होगा!
तो जब तक आपको भीतर का साक्षी ही न जगने लगे, तब तक जीवन के किसी अनुभव से अकारण अधूरे में, अधकचरे में भागना उचित नहीं है। उस भय से कोई किसी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है। सारा जीवन अनुभव के लिए है। यह ऐसा ही है, जैसे हम किसी विद्यार्थी को विश्वविद्यालय भेज दें और वह वहा परीक्षाओं से बचने लगे। यह संसार परीक्षालय है। वहां आपकी चेतना इसीलिए
है, ताकि अनुभवों से गुजरकर परिपक्व हो जाए।
तो मैं तो कहूंगा, सब अनुभव भोग लें, बुरे को भी। अगर जरा भी रस हो बुरे में, तो उसको भी भोग लें। बस इतना ही खयाल रखें कि भोगते समय में भी होश बना रहे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। और अगर आप डरे, जिम्मेवारी से बचना चाहा, तो वासनाएं विकृत हो जाएंगी और भीतर मन में घूमती रहेंगी।
उन विकृत वासनाओं के परिणाम कभी भी मुक्तिदायी नहीं हैं। स्वास्थ्य से तो कोई मुक्त हो सकता है, विकृति से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
तो सहज हों, स्वाभाविक हों। और जो भी मन में उठता हो, उसको उठने दें, उसको पूरा भी होने दें। सिर्फ एक ही बात खयाल रखें कि पीछे एक देखने वाला भी खडा रहे और देखता रहे। आपकी पूरी जिंदगी एक नाटक हो जाए और आप उसको देखते रहें। यह देखना ही सारी जिंदगी को बदल देगा। यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, देखने के द्वारा पूरी जिंदगी को बदल लेना।
भागने के द्वारा कोई कभी नहीं बदलता। भागने से सिर्फ कमजोरी जाहिर होती है। और भागे हुए आदमी की वासनाएं पीछा करती हैं। वह जहां भी चला जाए, वासनाएं उसके पीछे होंगी।

ओशो
गीता दर्शन, भाग -7

MY LIFE MY WAY:THOUGHTS OF THE DAY











Friday, 9 September 2016

The Great Maratha's : Don't try to ignore

/मराठ्यांच्या मोर्च्यांची दिल्लीत दस्तक//

दिल्लीतील एका दैनिकात आलेला लेख पूर्ण वाचा आणि राज्याबाहेर असणाऱ्या आपल्या मित्रांना पाठवा


" ये मराठा उस इतिहास से तालुक रखते है जिस इतिहास मे मराठो ने भूखे पेट दिल्ली अपने पैरोतले दबोची थी। उसी दिल्ली के दिल मे अपना खौफ जमा रहे मराठे किसी भी वक्त उस जंग का ऐलान कर सकते है जिसकी हार भाजप को तहस नहस कर के रख देगी। जरुरी बन गया है कि मोदी सरकार जल्द से जल्द हवा के रुख को समजते हुये मराठो की जजबातो कि कदर करे।" महासत्ता के स्वप्नरंजन मे निद्रिस्त मोदी सरकार को मराठा को नजरअंदाज करना भारी किमत चुकाने पर मजबूर कर सकता है ।फिर एकबार मराठा इतिहास कि उस कगार पर खडा है जहासे एक क्रांती अपने आप को दोहरायेगी या फिर संविधान पर विश्वास खोनेवाला एक बडा वर्ग व्यवस्था के विरुद्ध खडा हो जायेगा "

मराठो को भाजपा नजरअंदाज ना करे

#मराठो का #सैलाब और #दिल्ली का #तख्त
फिर एकबार मराठा इतिहास कि उस कगार पर खडा है जहासे एक क्रांती अपने आप को दोहरायेगी या फिर संविधान पर विश्वास खोनेवाला एक बडा वर्ग व्यवस्था के विरुद्ध खडा हो जायेगा । बिते वक्त कई पडाव भीड के आड मे संविधान को ललकारते हुये रास्ते नाप रहे है । गुजराथ का पटेल समाज हो या राजस्थान के गुजर या फिर हाल ही मी हरियाना के जाटो ने व्यवस्था को जिस तरह झीन्जोडकर रखा है । आंदोलन और मांग इनकी परिभाषाये बदल रही है। हार्दिक पटेल , कह्नैया कुमार ये युवक जनमन को लुभाते नजर आ रहे है । लाखो कि भीड रस्तेपर लाकर सीधे व्यवस्था को ललकारनेकी कोशिश करते आ रही इस आंदोलनो कि आलोचना नही बल्के सरहना हो रही है । यह वो दौर है जब लोग अपनी मांगे संवैधानिक स्तर पर नही हालाकी भीड कि दम पर पुरी करना चाहते है । आरक्षण कि मांग सातवे आसमान पर है इसी बीच महाराष्ट्र के मराठा किसी तय्यारी के बिना लाखो कि तादात मे रस्ते पर उतरे है । इसमे अजब बात ये है कि यहा कोई हार्दिक पटेल या कोई कन्हैया आयकॉन नही है लोग नेत्रत्व के अलावा भीड मे शामिल हो रहे है । ८ अगस्त को शुरू हुई रेलीया दिन ब दिन लंबी हो रही है । मराठवाडा के ओरंगाबाद से निकले ये मराठो के जुलूस उस्मानाबाद जलगाव बीड परभणी से होते हुये ५ लाख तक पहुचे है । मराठा को आरक्षण चाहिये ये मांग उन्ह की कई सालो से है। महाराष्ट्र का सबसे बडा जातसमुदाय मराठा की जजबातो कि कदर करते हुये तात्कालिक राज्यसरकार ने वह लोकप्रिय घोषणा करते हुये मराठा आरक्षण का लोकप्रिय ऐलान किया था मात्र उस आरक्षण का टिकाव न्यायव्यवस्था के सामने रहा नही और न्यायालय ने मराठा आरक्षण खारीज कर दिया । न्यायालय कि उस निर्णय ने मराठा को एक गहरी चोट लगी जिसका घाव अंदुरुनी था । लोग एकदुसरे को कोसते हुये आरक्षण का मुद्दा सामाजिक स्वास्थ्य के सामने खडे करते थे । मराठा जात का मजाक यहा तक उडा की लोग अपने जात का प्रमाणपत्र निकाल चुके थे मगर उसका उपयोग कर पाये तब तक सरकार का निर्णय न्यायालय ने खारीज किया था । वो प्रमाणपत्र मात्र कागज के तुकडा बनकर रहा और मराठा मायुस हो गया . तब से मराठा किसी मौके की तलाश मे था और वो मौका कोपर्डी कि उस घटना ने दे दिया जहा एक १४ वर्षीय नाबालिक मराठा समाज की लडकी को ३ दरीन्दोने इसकदर लुटा कि उस लडकी को जान देते देते भी नही छोडा उस घटना कि चिंगारी आग बनी और लोग रस्ते पर उमड पडे । कोई नेता नही कोई संघटन नही सिर्फ लोग और लाखो कि भीड , ये अपने आप मे देश मे पहलीबार हो रहा है । ये भीड मूक होती है कोई घोषणा नही आंदोलक समाज किसी शासकीय एवम् सामाजिक संपती का नुकसान नही करती जैसे पटेल जाट और गुजर कि आंदोलन लाखो कि संपती को धस्त कराते थे , ऐसी कोई बात मराठा आंदोलन मे हो नही रही । देश मे पहली बार कोई समाज कीसी नेता या संघटन के अलावा शांत और अपनी जख्मो का प्रदर्शन कर रहा है । इन जलुसो मे एक अजब दर्द है अ‍ॅट्रॉसिटी इस कानूनी अधिनियम से मराठा परेशान है । लोगो कि तादात जो रस्ते पर उमड रही है इसमे ज्यादा लोग उस कानून से परेशान है। जिस कानून से दलीतो को मराठा एवम् सवर्ण जाती के अन्याय से राहत मिलती है, पर उस कानून का गलत इस्तेमाल करते हुये बडी संख्या मे मराठा इस कानून के चपेट मे भी आता गया है ।  यह कानून एस.सी., एस.टी. वर्ग के सम्मान, स्वाभिमान, उत्थान एवं उनके हितों की रक्षा के लिए भारतीय संविधान में किये गये विभिन्न प्रावधानों के अलावा इन जातीयों के लोगों पर होने वालें अत्याचार को रोकनें के लिए 16 अगस्त 1989 को उपर्युक्त अधिनियम लागू किये गये। वास्तव में अछूत के रूप में दलित वर्ग का अस्तित्व समाज रचना की चरम विकृति का द्योतक हैं। भारत सरकार ने दलितों पर होने वालें विभिन्न प्रकार के अत्याचारों को रोकनें के लिए भारतीय संविधान की अनुच्छेद 17 के आलोक में यह विधान पारित किया। इस अधिनियम में छुआछूत संबंधी अपराधों के विरूद्ध दंड में वृद्धि की गई हैं तथा दलितों पर अत्याचार के विरूद्ध कठोर दंड का प्रावधान किया गया हैं। इस अधिनिमय के अन्तर्गत आने वालें अपराध संज्ञेय गैरजमानती और असुलहनीय होते हैं। यह अधिनियम 30 जनवरी 1990 से भारत में लागू हो गया। यह अधिनियम राजनीती का हिस्सा बना दलीतो सामने करते हुये राजनीती को अंजाम देते देते इस अधिनियम का मिस युज होता रहा इस हद तक की मराठा जो लाखो कि तादात मे रस्ते पर निकल रहा इसकी वजह अधिनियम का मिसयूज और उसकी चपेट मे बरबाद हुये कई कुटुंब है । इसमे और एक अंदुरुनी सच्याई है, कोपर्डी की मराठा नाबालिक लडकी से दुष्क्रत्य करनेवाला दलित जाती से था , यह एक कारण बना मराठा समाज को रस्ते पर निकलने का , पहिले हि अधिनियम के मिस युज से त्रस्त समाज को कोपर्डी कि घटना तत्कालीन जरिया बनी और उसी पर अपनी निव रखते हुये मराठा उमड पडा । यह जनसैलाब भले हि मराठा जात का हो मगर उसमे कोई द्वेष या और जाती से कोई स्पर्धा नही है ,उनका अपना दर्द है । आरक्षण का दर्द , बेरोजगारी का दर्द , अ‍ॅट्रॉसिटी इस अधिनियम के मिस युज से जो जिंद्गीया तबाह हुई उसका दर्द ,आज सर चढकर बोल रहा है । जब ६ लाख लोग खुद प्रेरित होकर रस्ते पर आते है ,कोई नेता नही ना कोई संघटन उस सैलाब को नियोजन करता है । लाखो लोग होने के बावजुद पोलीस कर्मी को अपना दंडा हिलाने कि तक जरुरत नही पडती लोग किसी हिंसा एवम किसीको दुख या किसी शक्तीप्रदर्शन के लिये एकठा नही बल्के अपने हाल ए बया के लिये अपूर्व शिस्त मे अपना आंदोलन करते है। और सरकारी दफ्तर मे निवेदन देते हुये घर लौट जाते है । लेकीन जिस तरह ये भीड शांत और स्थिर दिख रही है उसे इसितरह ग्रहीत समजना भूल हो सकती है । जब चार लोग एक जगह आते है तो उनकी मांग और आवाज बढती है , यह तो लाखो है । बस किसी पाडाव पर मराठा अपना रवय्या और रुख बदले इसके पहले देश की सत्ताकेंद्र पक्ष को पुक्ता कदम उठाना जरुरी है। भाजपा के लिये ये मराठा के सैलाब कमाल की दिक्कत साबित हो सकते है । भाजपा के प्रमुख विरोधी शरद पवार मराठा जाती से आते है सरकार और  भाजप को मराठा से जो आलोचना मिल रही है उसका राजनैतिक लाभ सरल सरल शरद पवार के जेब मे जाता है।और भाजपा ऐसा कतई नही चाहेगी .
    पर इस सैलाबो को राजनीतीसे उठकर बी देखना जरुरी है क्यो कि मराठा किसी एक दिन या कीस एक मांग को लेकर रस्ते पर उतरा नही उसके दर्द और मांगे गहरे है ये भी सोचने कि बात है । महासत्ता के स्वप्नरंजन मे निद्रिस्त मोदी सरकार को मराठा को नजरअंदाज करना भारी किमत चुकाने पर मजबूर कर सकता है । महाराष्ट्र मे दलित मराठा एक दुसरे के सामने आ चुके है दलित अ‍ॅट्रॉसिटी के बचाव का नारा देते हुये मराठा का द्वेष को बडा सकते है और मराठा अभी नही तो कभी नही इस भाव से अ‍ॅट्रॉसिटी मे बदलाव मांग रही है जिसे अ‍ॅट्रॉसिटी अधिनियम का मिस युज रोकने मे सहायता हो । इसके साथ साथ मराठा आरक्षण भी चाहता है मराठा कभी राज करता था पर आज मराठा समाज मागास लडी से गुजर रहा है । मराठा युवाको राजनीती कि दलदल मे घसीटा जा रहा है । बेरोजगारी से मराठा आज आर्थिक स्तर पर अपनी न्यूनतम स्तर पा रहा है । आज तक मराठा नेता बने पर उन्ह नेतावो ने अपने काम तो बना लिये पर समाज के लिये ऐसा कूच किया नही जो मददगार बने दुसरी तरफ अन्य जातसमुदाय के नेता अपने समाज के लिये कूच ना कूच करते रहे , उस नियम से मराठा समाज की नाराजी पुरी राजनीती और व्यवस्था के विरुद्ध है। राज्य और केंद्र मे भाजपा सत्ता मे है इन लाखो कि तादात मे निकल रहे मराठा को नजर अंदाज करणा भारी पड सकता है .
मुघल राज का अंत (१६८०-१७७०) में सुरु हो गया था, जब मुगलो के ज्यादातर भू भागो पे मराठो का अधिपत्य हो गया था। गुजरात और मालवा के बाद बाजीराव ने १७३७ में दिल्ली पे मुगलो को हराकर अपने अधीन कर लिया था और दक्षिण दिल्ली के ज्यादातर भागो पे अपने मराठाओं का राज था। बाजीराव के पुत्र बाळाजी बाजीराव  ने बाद में पंजाब कभी जीतकर अपने अधीन करके मराठो कि विजय पताका उत्तर भारत में फैला दी थी ये मराठा उस इतिहास से तालुक रखते है जिस इतिहास मे मराठो ने भूखे पेट दिल्ली अपने पैरोतले दबोची थी। उसी दिल्ली के दिल मे अपना खौफ जमा रहे मराठे किसी भी वक्त उस जंग का ऐलान कर सकते है जिसकी हार भाजप को तहस नहस कर के रख देगी। जरुरी बन गया है कि मोदी सरकार जल्द से जल्द हवा के रुख को समजते हुये मराठो की जजबातो कि कदर करे। आज मराठा किसी सहायता का मोहताज नही है उसे जरुरत नही कि उसकी दस्तक कोई समजे वह बस यह दिखा रहा है कि वह जाग रहा है। अनेक विश्लेषक इस नतीजे पर पहुचे है कि यह मराठा मार्च जातीवाद को बडावा दे रहा है लेकीन कोई इतर जात या समुदाय यही कोशिश सालो से करता आ रहा तब कोई कुछ नही कहता ? यह सवाल भी सामने आ जाता है । जिल्हे से जिल्हे मराठा भारी संख्या मे रास्ता नाप रहे है उनके तरीके तेवर उपर से शांत नजर आते है पर शायद अंदुरनी तपीश भयावह होगी और क्या पता पानिपत चलते मराठो  ने दिल्ली जैसे पा ली थी उसी तरह इतिहास को दोहराते हुये मोदी सरकार को न झीन्झोड दे ।
#आनंद काजळे

Sunday, 28 August 2016

भारतीय मुद्रा (रुपया ₹) से जुड़े 31 ग़ज़ब रोचक तथ्य .

आपको आनंद तथ्य

भारतीय मुद्रा (रुपया ₹) से जुड़े 31 ग़ज़ब रोचक तथ्य

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1. भारत में करंसी का इतिहास2500 साल पुराना हैं। इसकी शुरूआत एक राजा द्वारा की गई थी।
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2. अगर आपके पास आधे से ज्यादा (51 फीसदी) फटा हुआ नोट है तो भी आप बैंक में जाकर उसे बदल सकते हैं।
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3. बात सन् 1917 की हैं, जब 1₹ रुपया 13$ डाॅलर के बराबर हुआ करता था। फिर 1947 में भारत आजाद हुआ, 1₹ = 1$ कर दिया गया. फिर धीरे-धीरे भारत पर कर्ज बढ़ने लगा तो इंदिरा गांधी ने कर्ज चुकाने के लिए रूपये की कीमत कम करने का फैसला लिया उसके बाद आज तक रूपये की कीमत घटती आ रही हैं।
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4. अगर अंग्रेजों का बस चलता तो आज भारत की करंसी पाउंड होती. लेकिन रुपए की मजबूती के कारण ऐसा संभव नही हुआ।
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5. इस समय भारत में 400 करोड़ रूपए के नकली नोट हैं।
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6. सुरक्षा कारणों की वजह से आपको नोट के सीरियल नंबर में I, J, O, X, Y, Z अक्षर नही मिलेंगे।
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7. हर भारतीय नोट पर किसी न किसी चीज की फोटो छपी होती हैं जैसे- 20 रुपए के नोट पर अंडमान आइलैंड की तस्वीर है। वहीं, 10 रुपए के नोट पर हाथी, गैंडा और शेर छपा हुआ है, जबकि 100 रुपए के नोट पर पहाड़ और बादल की तस्वीर है। इसके अलावा 500 रुपए के नोट पर आजादी के आंदोलन से जुड़ी 11 मूर्ति की तस्वीर छपी हैं।
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8. भारतीय नोट पर उसकी कीमत 15 भाषाओंमें लिखी जाती हैं।
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9. 1₹ में 100 पैसे होगे, ये बात सन् 1957 में लागू की गई थी। पहले इसे 16 आने में बाँटा जाता था।
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10. RBI, ने जनवरी 1938 में पहली बार 5₹ की पेपर करंसी छापी थी. जिस पर किंग जार्ज-6 का चित्र था। इसी साल 10,000₹ का नोट भी छापा गया था लेकिन 1978 में इसे पूरी तरह बंद कर दिया गया।
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11. आजादी के बाद पाकिस्तानने तब तक भारतीय मुद्रा का प्रयोग किया जब तक उन्होनें काम चलाने लायक नोट न छाप लिए।
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12. भारतीय नोट किसी आम कागज के नही, बल्कि काॅटन के बने होते हैं। ये इतने मजबूत होते हैं कि आप नए नोट के दोनो सिरों को पकड़कर उसे फाड़ नही सकते।
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13. एक समय ऐसा था, जब बांग्लादेश ब्लेड बनाने के लिए भारत से 5 रूपए के सिक्के मंगाया करता था. 5 रूपए के एक सिक्के से 6 ब्लेड बनते थे. 1 ब्लेड की कीमत 2 रूपए होती थी तो ब्लेड बनाने वाले को अच्छा फायदा होता था. इसे देखते हुए भारत सरकार ने सिक्का बनाने वाला मेटल ही बदल दिया।
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14. आजादी के बाद सिक्के तांबे के बनते थे। उसके बाद 1964 में एल्युमिनियम के और 1988 में स्टेनलेस स्टील के बनने शुरू हुए।
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15. भारतीय नोट पर महात्मा गांधीकी जो फोटो छपती हैं वह तब खीँची गई थी जब गांधीजी, तत्कालीन बर्मा और भारत में ब्रिटिश सेक्रेटरी के रूप में कार्यरत फ्रेडरिक पेथिक लॉरेंस के साथ कोलकाता स्थित वायसराय हाउस में मुलाकात करने गए थे। यह फोटो 1996 में नोटों पर छपनी शुरू हुई थी। इससे पहले महात्मा गांधी की जगह अशोक स्तंभ छापा जाता था।
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16. भारत के 500 और 1,000 रूपये के नोट नेपालमें नही चलते।
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17. 500₹ का पहला नोट 1987 में और 1,000₹ पहला नोट सन् 2000 में बनाया गया था।
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18. भारत में 75, 100 और 1,000₹ के भी सिक्के छप चुके हैं।
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19. 1₹ का नोट भारत सरकार द्वारा और 2 से 1,000₹ तक के नोट RBI द्वारा जारी किये जाते हैं.
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20. एक समय पर भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए 0₹ का नोट 5thpillar नाम की गैर सरकारी संस्था द्वारा जारी किए गए थे।
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21. 10₹ के सिक्के को बनाने में 6.10₹ की लागत आती हैं.
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22. नोटो पर सीरियल नंबर इसलिए डाला जाता हैं ताकि आरबीआई(RBI) को पता चलता रहे कि इस समय मार्केट में कितनी करंसी हैं।
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23. रूपया भारत के अलावा इंडोनेशिया, मॉरीशस, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका की भी करंसी हैं।
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24. According to RBI, भारत हर साल 2,000 करोड़ करंसी नोट छापता हैं।
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25. कम्प्यूटर पर ₹ टाइप करने के लिए ‘Ctrl+Shift+$’ के बटन को एक साथ दबावें.
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26. ₹ के इस चिन्ह को 2010 में उदय कुमार ने बनाया था। इसके लिए इनको 2.5 लाख रूपयें का इनाम भी मिला था।
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27. क्या RBI जितना मर्जी चाहे उतनी कीमत के नोट छाप सकती हैं ?
ऐसा नही हैं, कि RBI जितनी मर्जी चाहे उतनी कीमत के नोट छाप सकती हैं, बल्कि वह सिर्फ 10,000₹ तक के नोट छाप सकती हैं। अगर इससे ज्यादा कीमत के नोट छापने हैं तो उसको रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट, 1934 में बदलाव करना होगा।
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28. जब हमारे पास मशीन हैं तो हम अनगणित नोट क्यों नही छाप सकते ?
हम कितने नोट छाप सकते हैं इसका निर्धारण मुद्रा स्फीति, जीडीपी ग्रोथ, बैंक नोट्स के रिप्लेसमेंट और रिजर्व बैंक के स्टॉक के आधार पर किया जाता है।
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29. हर सिक्के पर सन् के नीचे एक खास निशान बना होता हैं आप उस निशान को देखकर पता लगा सकते हैं कि ये सिक्का कहाँ बना हैं.
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*.मुंबई – हीरा [◆]
*.नोएडा – डाॅट [.]
*.हैदराबाद – सितारा [★]
*.कोलकाता – कोई निशान नहीं.
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30. जानिए, एक नोट कितने रूपयें में छपता हैं।
*.1₹ = 1.14₹
*.10₹ = 0.66₹
*.20₹ = 0.94₹
*.50₹ = 1.63₹
*.100₹ = 1.20₹
*.500₹ = 2.45₹
*.1,000₹ = 2.67₹
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31. रूपया, डाॅलर के मुकाबले बेशक कमजोर हैं लेकिन फिर भी कुछ देश ऐसे हैं, जिनकी करंसी के आगे रूपया काफी बड़ा हैं आप कम पैसों में इन देशों में घूमने का लुत्फ उठा सकते हैं.
*.नेपाल (1₹ = 1.60 नेपाली रुपया)
*.आइसलैंड (1₹ = 1.94 क्रोन)
*.श्रीलंका (1₹ = 2.10 श्रीलंकाई रुपया)
*.हंगरी (1₹ = 4.27 फोरिंट)
*.कंबोडिया (1₹ = 62.34 रियाल)
*.पराग्वे (1₹ = 84.73 गुआरनी)
*.इंडोनेशिया (1₹ = 222.58 इंडोनेशियन रूपैया)
*.बेलारूस (1₹ = 267.97 बेलारूसी रुबल)
*.वियतनाम (1₹ = 340.39 वियतनामी डॉन्ग).

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भारतीय मुद्रा प्रणाली का संशिप्त विवरण
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OLD INDIAN CURRENCY SYSTEM..
Phootie Cowrie to Cowrie
Cowrie to Damri
Damri  to Dhela
Dhela  to Pie
Pie to  to Paisa
Paisa to Rupya
256 Damri = 192 Pie = 128 Dhela = 64 Paisa (old) = 16 Anna = 1 Rupya
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Now u know how some of the indian sayings originated..
ek 'phooti cowrie' nahin doonga...
'dhele' ka kaam nahin karti hamari bahu...
chamdi jaye par 'damdi' na jaye...
'pie pie' ka hisaab rakhna...

कैसा लगा आपको ?

Thursday, 25 August 2016

Great Thoughts On Death: By Osho

मृत्यु के समय जागे रहने की तैयारी



भगवान श्री मृत्यु में भी जागे रहने के लिए या ध्यान में सचेतन मृत्यु की घटना को सफलतापूर्वक आयोजित करने के लिए शरीर— प्रणाली श्वास— प्रणाली श्वास की स्थिति प्राणों की स्थिति ब्रह्मचर्य मनशक्ति आदि के संबंध में क्या— क्या तैयारियां साधक की होनी चाहिए

 इस पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें। ?

 मृत्यु में जागे हुए रहने के लिए सबसे पहली तैयारी दुख में जागे रहने की करनी पडती है। साधारणत: जो दुख में ही मूर्च्छित हो जाता है, उसकी मृत्यु में जागे रहने की संभावना नहीं है। और दुख में मूर्च्‍छित होने का क्या अर्थ है, यह समझ लेना जरूरी है। तो दुख में जागे रहने का अर्थ भी समझ में आ जाएगा।

जब भी हम दुख में होते हैं तो मूर्च्छित होने का अर्थ होता है, दुख के साथ आइडेंटिफिकेशन, दुख के साथ तादात्म्य। जब आपका सिर दुखता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर कहीं दुख रहा है और आप जान रहे हैं। ऐसा लगता है कि मैं ही दुख रहा हूं।

जब आप को बुखार होता है और शरीर उत्तप्त होता है, तब ऐसा नहीं लगता है कि कहीं दूर शरीर गर्म हो गया है। ऐसा लगने लगता है कि मैं ही गर्म हो गया हूं। यह है आइडेंटिफिकेशन, यह है तादात्म्य। जब पैर में चोट लगती है और घाव हो जाता है, तो पैर में चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा नहीं मालूम पड़ता है। मुझे चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा मालूम पड़ता है।

असल में शरीर के साथ हमारा कोई फासला नहीं, कोई डिस्टेंस नहीं। शरीर के साथ हम एक ही होकर जीते हैं। जब भूख लगती है, तो हम ऐसा नहीं कहते कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। हम ऐसा ही कहते हैं कि मुझे भूख लगी है। सचाई यह नहीं है। सचाई यह है कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। मैं तो बोध का बिंदु हूं। मुझे तो निरंतर पता चल रहा है। पैर में कांटा गड़ा है तो मुझे पता चल रहा है, सिर में दर्द है तो मुझे पता चल रहा है, पेट में भूख है तो मुझे पता चल रहा है। मैं तो चेतना हूं जिसे पता चल रहा है। मैं भोक्ता नहीं हूं, सिर्फ ज्ञाता हूं। यह तो सत्य है।

लेकिन हमारी जो मनःस्थिति है वह ज्ञाता की नहीं, भोक्ता की है। जब ज्ञाता भोक्ता बन जाता है, जब वह जानता ही नहीं, बल्कि किया के साथ एक हो जाता है, जब वह दूर साक्षी नहीं रहता, भागीदार बन जाता है, तब आइडेंटिफिकेशन हो जाता है। तब वह एक हो जाता है। यह एक हो जाना ही जागने नहीं देता। क्योंकि जागने के लिए दूरी चाहिए, डिस्टेंस चाहिए, स्पेस चाहिए।

अगर मैं आपको देख पा रहा हूं तो इसीलिए कि आपके और मेरे बीच में दूरी है। अगर मेरे और आपके बीच की पूरी दूरी अलग कर दी जाए, तो मैं आपको देख नहीं पाऊंगा। आपको देख पाता हूं, क्योंकि मेरे और आपके बीच में जगह है, स्पेस है। अगर बीच का सारा स्थान अलग कर दिया जाए, तो फिर मैं आपको देख न पाऊंगा। इसीलिए तो मेरी आंखें आपको देख लेती हैं, लेकिन खुद मेरी ही आंखों को मेरी आंखें नहीं देख पातीं। अगर मुझे स्वयं को भी देखना है, तो एक दर्पण में दूसरा बनना पड़ता है और अपने से फासला पैदा करना पड़ता है तब देख पाता हूं। दर्पण का मतलब है कि मेरा चित्र अब मेरे से फासले पर है और अब मैं उसे देख लूंगा। दर्पण कुछ भी नहीं करता, दर्पण सिर्फ इतना करता है कि आपके चित्र को आपसे दूरी पर उपस्थित कर देता है। दूरी पर उपस्थित होने की वजह से बीच में स्पेस हो जाती है और आप देख लेते हैं।
दर्शन के लिए दूरी जरूरी है। और जो व्यक्ति अपने शरीर के साथ एक ही होकर जी रहा है या जो समझ रहा है कि मैं शरीर ही हूं, उसके और शरीर के बीच में कोई दूरी नहीं रह जाती।

एक मुसलमान फकीर हुआ फरीद। और एक दिन सुबह एक आदमी ने आकर उससे यही बात पूछी जो तुम मुझसे पूछ रहो हो। उस आदमी ने फरीद से आकर कहा कि मैंने सुना है कि जीसस को जब सूली लगी तब वे रोए नहीं, चिल्लाए नहीं, दुखी नहीं हुए। और मैंने यह भी सुना है कि जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मंसूर हंस रहा था। यह कैसे हो सकता है? यह असंभव है!

फरीद कुछ भी नहीं बोला, हंसता रहा। और पास में पड़े हुए एक नारियल को जो भक्त उसके पास चढा जाते थे, उसने उस आदमी को दिया और कहा कि तू जरा इस नारियल को ले जा, यह कच्चा नारियल है तो इसे तोड़कर ले आ। और ध्यान रखना, गिरी न टूट पाए। ऊपर की खोल अलग कर देना और गिरी को साबित ले आना।

उस आदमी ने कहा, यह न हो सकेगा। क्योंकि कच्चा है नारियल, गिरी और उसकी खोल के बीच फासला नहीं है। मैं उसकी खोल को तोडूगा, भीतर की गिरी टूट जाएगी।

फरीद ने कहा, फिर इसको छोड़ दे। यह दूसरा नारियल है, इसको ले जा। यह सूखा नारियल है। इसकी गिरी में और खोल में फासला है। क्या तू वायदा करता है कि इसकी खोल को तोड़ लाएगा, गिरी को साबित बचा लेगा?

उस आदमी ने कहा, यह कौन सी कठिन बात है। मैं खोल को तोड़े लाता हूं, गिरी साबित बच जाएगी। फरीद ने पूछा, लेकिन बात क्या है, इसकी गिरी क्यों बच जाएगी साबित? उसने कहा, नारियल सूखा हुआ है। गिरी और खोल के बीच फासला है। फरीद ने कहा, अब तोड्ने की फिक्र न कर। इस नारियल को भी यहीं रख दे। तुझे अपना जबाब मिल गया कि नहीं मिल गया?

उस आदमी ने कहा, मैं कुछ पूछ रहा था और आप कहा नारियल की बातों में मुझे उलझा दिये। मैं पूछता हूं कि जीसस को जब सूली लगी तो जीसस चिल्लाए क्यों नहीं, रोए क्यों नहीं? और जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मैसूर तड़फा क्यों नहीं? हंसा क्यों, मुस्कुराया क्यों?

फरीद ने कहा कि वे सूखे नारियल थे और हम गीले नारियल हैं, इससे ज्यादा और कोई कारण नहीं है। और जीसस को जब सूली दी जा रही थी तो जीसस को नहीं दी जा रही थी। जीसस देख रहे थे कि शरीर को सूली दी जा रही है और देखने में वे उतने ही फासले पर थे, जितना जीसस के बाहर खड़े हुए लोग फासले पर थे। जैसा बाहर खड़ा हुआ कोई आदमी नहीं चिल्लाया, कोई आदमी नहीं रोया कि मुझे मत मारो। क्यों? क्योंकि जीसस के शरीर से उन देखने वालों का फासला था। जीसस का भी—जो भीतर देखने वाला तत्व है —उसका और जीसस के शरीर का फासला था। इसलिए जीसस भी नहीं चिल्लाए कि मुझे मत मारो।

मैसूर के हाथ —पैर काटे गए और मैसूर हंसता रहा। और जब किसी ने पूछा कि तुम हंस क्यों रहे हो? तुम्हारे हाथ—पैर काटे जा रहे हैं! तो मैसूर ने कहा, अगर मुझे कांटा जाता तो मैं रोता। लेकिन मुझे नहीं कांटा जा रहा है। और जिसे तुम काट रहे हो

 नासमझों, वह मैं नहीं हूं। और मैं तुम पर इसलिए हंस रहा हूं कि जब तुम मेरे शरीर को मंसूर समझकर काट रहे हो, तो तुम दुखी होकर ही मरोगे, क्योंकि तुम अपने शरीर को भी स्वयं ही समझते रहोगे कि तुम वही हो। तुम मेरे साथ जो कर रहे हो, वह तुम्हारी अपने साथ की गई गलती की ही पुनरुक्ति है। अगर तुम्हें पता चल गया होता कि तुम शरीर से अलग हो, तो शायद तुम मेरे शरीर को काटने की कोशिश न करते। क्योंकि तुम जानते कि मैं तो कुछ और हूं? शरीर कुछ और है; और शरीर को काटने से मंसूर नहीं कटता।

तो सबसे बड़ी तैयारी मृत्यु में जागे हुए प्रवेश करने की, दुख में जागे हुए प्रवेश करना है। क्योंकि मृत्यु तो बार—बार नहीं आती, रोज नहीं आती। मृत्यु तो एक बार आएगी। आप तैयार होंगे तो तैयार होंगे, नहीं तैयार होंगे तो नहीं तैयार होंगे। मृत्यु का कोई रिहर्सल नहीं हो सकता। उसकी कोई पूर्व अभिनय की तैयारी नहीं हो सकती। लेकिन दुख रोज आता है, पीड़ा रोज आती है। पीड़ा और दुख में हम तैयारी कर सकते हैं। और ध्यान रहे, अगर पीड़ा और दुख में तैयारी हो गई तो मृत्यु में वह तैयारी काम आ जाएगी।

इसलिए दुख को सदा ही साधक ने स्वागत से स्वीकार किया है। उसका और कोई कारण नहीं है। उसका कारण यह नहीं है कि दुख शुभ है। उसका कारण सिर्फ यह है कि दुख उसे अवसर बनता है, स्वयं को साधने का। इसलिए साधक ने सदा ही दुख के लिए परमात्मा को धन्यवाद ही दिया है। क्योंकि दुख के क्षणों में वह अपने शरीर से दूर होने के लिए एक अवसर पाता है, एक मौका पाता है।

और ध्यान रहे, सुख के क्षण में यह साधना जरा मुश्किल है, दुख के क्षण में जरा आसान है। क्योंकि सुख के क्षण में तो हमारा मन ही नहीं करता है कि शरीर से जरा भी दूर हो जाएं। शरीर तो सुख के क्षण में बहुत प्यारा मालूम पड़ता है। शरीर से तो सुख के क्षण में मन होता है कि हम शरीर से इंच भर के फासले पर भी न हों! सुख के क्षण में हम शरीर के बहुत निकट सरक आते हैं। इसलिए सुख का खोजी अगर शरीर वादी हो जाता है तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और निरंतर सुख की खोज में लगा हुआ व्यक्ति अगर अपने को शरीर ही समझने लगता है तो भी कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि सुख के क्षण में वह सूखे नारियल की जगह गीला नारियल होने लगता है। फासला कम होने लगता है।

दुख के क्षण में तो मन होता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा है। जब सिर में दर्द होता है और जब पैर में चोट होती है और शरीर दुखता है, तो साधारणत: जो आदमी अपने को शरीर ही मानता है, वह भी एक क्षण सोच लेता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा। यह जो फकीर दुनिया भर के कहते रहे हैं अगर ठीक होता तो अच्छा कि हम शरीर न होते। उस वक्त उसका मन भी तैयार होता है कि किसी तरह यह पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए दुख का क्षण साधना का क्षण बन सकता है, बनाया जा सकता है।

लेकिन हम क्या करते हैं? साधारणत: हम दुख के क्षण में दुख को भूलने की कोशिश करते हैं। एक आदमी को तकलीफ है तो शराब पी लेगा। एक आदमी को दुख है तो सिनेमा में जाकर बैठ जाएगा। एक आदमी को दुख है तो भजन—कीर्तन करके भुलाने की कोशिश करने लगेगा। ये अलग— अलग तरकीबें हैं। कोई शराब पीता है, कहना चाहिए कि यह एक तरकीब है। कोई सिनेमा देखता
है, तो यह दूसरी तरकीब है। कोई जाकर संगीत सुनने बैठ जाता है, यह तीसरी तरकीब है। कोई झांझ—मंजीरा पीटकर भजन में लीन हो जाता है, यह चौथी तरकीब है। हजार तरकीबें हो सकती हैं; धार्मिक हो सकती हैं, अधार्मिक हो सकती हैं, सेक्यूलर हो सकती हैं, रिलीजस हो सकती हैं। यह सवाल बड़ा नहीं है। लेकिन भीतर बुनियादी बात एक ही है कि आदमी अपने दुख को भूलना चाह रहा है। फारगेटफुलनेस की कोशिश में लगा है। विस्मरण हो जाए।

और जो आदमी दुख को विस्मरण करेगा, वह आदमी दुख के प्रति जाग नहीं सकता। क्योंकि जिस चीज को हम भुला देते हैं, उसके प्रति जागेंगे कैसे। जाग सकते 'हैं उस चीज के प्रति, जिसके प्रति हमारा दृष्टिकोण रिमेंबरिंग का है, स्मरण का है।

इसलिए दुख के प्रति स्मरण ही दुख को जगाता है। जब आप दुख में हों, तो इसको एक अवसर समझें। और अपने दुख के प्रति पूरी स्मृति से भर जाएं। बड़े अदभुत अनुभव होंगे। जब आप दुख के प्रति पूरी स्मृति से भरेंगे और दुख को देखेंगे, भागेंगे नहीं दुख से। जैसे, पैर में दर्द है, चोट लग गई है, गिर गए हैं आप। तब आख बंद करके जरा भीतर दर्द को खोजने की कोशिश करें कि वह कहां है। उसे पिन स्काइट, उसे ठीक एक जगह पकड़ने की कोशिश करें कि वह दर्द है कहां। क्योंकि आप बड़े हैरान होंगे कि जितनी जगह दर्द होता है, उससे बहुत ज्यादा बड़ी जगह में आप उसे फैला लेते हैं। उतनी जगह होता नहीं।

|| ओशो ||

मैं मृत्यु सिखाता हूँ
प्रवचन - 12